Climate change: जलवायु परिवर्तन की भयावह और बढ़ती वैश्विक चुनौतियों तथा मानव जाति के लिए पर्यावरण को बचाने के भारतीय मंत्रियों के खोखले वादों के बीच हम लगातार निकोबार द्वीप समूह में योजनाबद्ध आगे बढ़ रही विशाल बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के बारे में सुन रहे हैं. खूबसूरत तटीय क्षेत्रों में प्राचीन जंगल, जहां सरकारी कागजों के अनुसार शोम्पेन जनजाति और दक्षिणी ग्रेट निकोबारी (अनुसूचित जनजाति) निवास करती है, प्रस्तावित ‘विकास’ के कारण गंभीर खतरे में हैं. कहा यह जाता है कि ऐसा देश की रक्षा आवश्यकताओं के लिए किया जा रहा है.
अगर सरकार वहां के जंगलों, क्षेत्र की पारिस्थितिकी और स्थानीय लोगों, जो कि ज्यादातर अशिक्षित और अनपढ़ हैं, के प्रति सचमुच गंभीर नहीं है तो पक्षी विज्ञानियों के अनुसार वहां पक्षी विरासत हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी और मुट्ठी भर बची जनजाति भी इस देश के नक्शे से विलुप्त हो जाएगी, हमेशा हमेशा के लिए.
वे लोग तथाकथित आधुनिक दुनिया से अपनी मर्जी से कटे हुए हैं और अपने छोटे प्राकृतिक आवासों में ही संतुष्ट हैं. अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत को प्रकृति का अनमोल उपहार है. चारों ओर 800 से अधिक छोटे-बड़े खूबसूरत द्वीप हैं. वे केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासनिक नियंत्रण में आते हैं, अर्थात वे सीधे उपराज्यपाल के माध्यम से नई दिल्ली द्वारा शासित होते हैं.
वर्ष 2020 से भाजपा सरकार ने स्थानीय ग्राम सभा, जनजातीय निदेशालय और अंडमान व निकोबार द्वीप प्रशासन के प्रमुख को शामिल करते हुए पर्यावरण विरोधी कदमों की एक श्रृंखला शुरू की है, जिसे ‘द ग्रेट निकोबार होलिस्टिक डेवलपमेंट प्रोजेक्ट’ कहा जाता है. नाम से पता चलता है कि यह स्थानीय लोगों के साथ-साथ प्राचीन पारिस्थितिकी की भी मदद करने जा रहा है.
जिसमें सदियों पुराने पेड़ शामिल हैं जिनकी संख्या अभी भी अज्ञात है. लेकिन नाम के अनुरूप यह विकास योजना नहीं है, यह विनाशकारी है. लाखों की संख्या में इन पेड़ों को ऐसी सरकार द्वारा निर्दयतापूर्वक काट दिया जाएगा, जो लोगों से पेड़ लगाने का आग्रह करती है. विडंबना यह है कि वहां का समग्र विकास शायद ही समग्र हो.
बंदरगाहों और हवाई अड्डों के नाम पर यह परियोजना स्थानीय जनजातियों को तबाह करने जा रही है जो बेचारे अपने ऐतिहासिक अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रहे हैं. वे 2004 की सुनामी के बाद पुनः विस्थापित हुए थे और अब अपनी पुश्तैनी जमीन की मांग कर रहे हैं, जहां से उन्हें 20 साल पहले स्थानांतरित किया गया था.
उनकी मूल भूमि को बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे की ऐसी परियोजना के लिए बदला जा रहा है, जो एक बड़े विवाद में फंस गई है. कछुओं के प्रजनन स्थलों, पक्षियों और आदिवासियों के सैकड़ों वर्ष पुराने अधिवासों को बचाने के लिए कई कानूनी और अर्ध-कानूनी याचिकाएं विभिन्न मंचों पर दायर की गई थीं.
पर्यावरण संरक्षक एवं अनेक नि:स्वार्थ लोग इस करोड़ों की परियोजना का जमकर विरोध कर रहे हैं. एक तरफ भारत की ‘राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना’ 2017-2031 अपने भाग-2 में ‘अंतर्देशीय जलीय पारिस्थितिकी तंत्रों के संरक्षण और तटीय और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों के संरक्षण’ की बात कहती है, उसी का भाग-5 ‘वन्यजीवों के संरक्षण के लिए सक्षम नीतियों और संसाधनों’ पर जोर देता है और इधर वन, चिड़ियाओं और वन्यप्राणियों का सफाया होने जा रहा है. दु:खद तथ्य यह है कि एक तरफ भाजपा हर चुनाव में आदिवासियों के वोट मांगती है और यहां आदिवासियों के छोटे समूह को एक सरकारी परियोजना के कारण विनाश की ओर ढकेला जा रहा है. वर्ष 2022 में पर्यावरण संरक्षण के लिए राष्ट्रपति को लिखे गए पत्र काफी हद तक अनसुने रह गए.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने तब मानवाधिकार दिवस पर कहा था : ‘‘जिस तरह मानवाधिकार की अवधारणा हमें हर इंसान को खुद से अलग नहीं मानने के लिए प्रेरित करती है, उसी तरह हमें पूरे जीव जगत और उसके आवासों के साथ सम्मान से पेश आना चाहिए.’’ चूंकि वे आदिवासी समुदाय से हैं, इसलिए याचिकाकर्ताओं, जिनमें से कई पूर्व बड़े सरकारी अधिकारी थे, ने उनसे निकोबार के आदिवासी समुदायों की रक्षा और उनके पारंपरिक घरों को बचाने का मामला साहसपूर्वक उठाने की उम्मीद की थी. लेकिन संवैधानिक प्रमुख से भी जनजातियों और पर्यावरण के समर्थकों को अभी तक न्याय नहीं मिल सका है.
अब दूसरी दुःखद कहानी सुनिए
जब मैंने यह कॉलम लिखना शुरू किया तो मुझे पता चला कि हरियाणा सरकार ने अरावली के जंगलों में 120 एकड़ भूमि पर खनन अनुमति पत्र जारी किए हैं.सत्ता के केंद्र दिल्ली के पास का नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र लगातार तीव्र मानवजनित दबाव झेल रहा है. एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल जिस दिन हरियाणा वन विभाग ने 500 एकड़ से अधिक क्षेत्र को आरक्षित वन घोषित किया, उसी दिन उसके अपने ही खनन विभाग ने वहां पत्थर खनन की अनुमति दे दी और एक निजी पार्टी को 10 साल का पट्टा तक जारी कर दिया. अब राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने सरकार को नोटिस जारी किया है.
मुख्य बात यह है कि सरकार का एक अंग दूसरे अंग के खिलाफ क्यों होना चाहिए? यह वैसा ही है जैसे सरकार वन्यजीव संरक्षण के प्रति अपनी चिंता दिखाने के लिए राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना जारी करती है और दूसरी ओर निकोबार द्वीप में बड़े पैमाने पर निर्माण परियोजना की अनुमति देती है. यह सब कब रुकेगा? पर्यावरण का विनाश कौन रोकेगा? सरकार के अलावा लोग किसके पास जाएंगे, क्यों और कब तक?