बदलापुर में दो मासूम छात्राओं के यौन उत्पीड़न के मामले की सुनाई करते हुए बंबई हाईकोर्ट ने मंगलवार को समाज और परिवार की आंख खोल देने वाली टिप्पणी की है। बंबई हाईकोर्ट की टिप्पणी से स्पष्ट है कि समाज में महिलाओं के शारीरिक तथा मानसिक उत्पीड़न को लेकर हमारा नजरिया बदलना जरूरी है तथा हर घटना के लिए लड़कियों या महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराने की प्रवृत्ति अनुचित एवं निंदनीय है।
हाईकोर्ट ने बदलापुर प्रकरण का स्वत: संज्ञान लेते हुए कहा कि समाज में पुरुष प्रधानता और पुरुषों का अहंकार कायम है। इसे दूर करने अथवा तथा महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए लड़कों को कम उम्र में लैंगिक समानता के बारे में शिक्षित तथा जागरूक बनाने की आवश्यकता है। महिलाओं पर अत्याचार की जब भी कोई घटना राष्ट्रव्यापी आक्रोश का केंद्र बन जाती है तो उस पर चिंता जताते हुए तरह-तरह के सुझाव आने लगते हैं। राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता, आम आदमी तथा लड़कों के मनोविज्ञान के विशेषज्ञ कड़े कानून बनाने के साथ-साथ सामाजिक चेतना जगाने की बात करते हैं। बहुत कम ऐसे मौके देखे गए हैं जब परिवार, समाज तथा शिक्षा संस्थानों को कम उम्र से ही लड़कों को लैंगिक समानता के बारे में जागरूक करने तथा लड़कियों के प्रति मानसिकता बदलने की सलाह दी गई हो।
वास्तव में हमारे समाज का ताना-बाना ही कुछ ऐसा है कि पुरुष ही यह तय करते हैं कि परिवार एवं समाज को कैसे संचालित किया जाना चाहिए, समाज किन व्यवस्थाओं, परंपराओं तथा रीति-रिवाजों का पालन करे तथा बदलते समय के साथ समाज एवं परिवार में कितना व कैसा बर्ताव होना चाहिए। महिलाओं को देह से ज्यादा कभी समझा नहीं गया।
इसीलिए समाज तथा परिवार में लड़की को घर का काम करने वाली, विवाह कर परिवार की वंशावली को आगे बढ़ाने वाली से ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती. आधुनिक समाज में भले ही लड़कियां हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा तथा समता का लोहा मनवा रही हों, उनके प्रति समाज तथा परिवार का नजरिया जरा भी नहीं बदला है। परिवार में लड़कों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाता है और सारी कोशिश यही रहती है कि उसका भविष्य संवरे क्योंकि घर की लड़की को पढ़ाने-लिखाने से परिवार का क्या फायदा होगा, उसे आखिर में ससुराल ही तो जाना है।
लड़कों पर कोई बंधन नहीं होते और न ही उन्हें अच्छी-बुरी आदतों तथा अच्छे आचरण के बारे में कुछ सिखाया जाता है. इसके विपरीत घर की लड़कियों पर घर के भीतर पहनने-ओढ़ने से लेकर बाहर जाने तक कई तरह की शर्तों का बोझ लाद दिया जाता है। वह अपनी मर्जी से न कपड़ों का चयन कर सकती है, न मित्रों का और न कहीं पर आने-जाने के बारे में अपनी इच्छा से कोई निर्णय कर सकती है।
उसकी प्रत्येक गतिविधि पर परिवार, आस-पड़ोस तथा समाज की पैनी नजर रहती है। जब किसी लड़की के साथ कुछ अनुचित हो जाता है तो सबसे पहले उसके चरित्र पर उंगली उठाई जाती है। उससे भी बात नहीं बनी तो यह कहा जाता है कि उसने भड़काऊ कपड़े पहने होंगे। लड़की काम के सिलसिले में अगर ऑफिस में देर तक रुक जाए तो उस पर चरित्रहीन होने का ठप्पा लगाते समाज को देर नहीं लगती। लड़कों के मामले में स्थिति ठीक विपरीत है। लड़कों की हर गलती क्षम्य मानी जाती है क्योंकि समाज पुरुष प्रधान है और उसकी सोच यह है कि लड़कों को ज्यादा आजादी पाने की छूट होनी चाहिए।
लड़के चाहे कुछ भी पहनें, कहीं भी जाएं, रात-रात भर बिना काम के बाहर जाएं, लड़कियों से अभद्र व्यवहार करें, उन्हें टोका नहीं जाता। लड़के इससे स्वच्छंद, निरंकुश और लड़कियों के प्रति क्रूर हो जाते हैं। उन्हें बचपन से यह सिखाया ही नहीं जाता कि लड़का होने से उसे लड़कियों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हुए नहीं हैं। घर के बाद समाज और स्कूल में भी लड़कों को यह सिखाया नहीं जाता कि लड़के और लड़कियों की शारीरिक बनावट में भिन्नता अधिकारों में पक्षपात का कारण नहीं बनती। लड़कियों को भी उतने ही और वैसे ही अधिकार हासिल हैं, जैसे लड़कों को।
लैंगिक समानता के बारे में शिक्षित करने की सबसे पहली पाठशाला उनका परिवार होता है। परिवार में लड़का तथा लड़की के साथ जब एक जैसा व्यवहार होने लगेगा, दोनों से समान व्यवहार किया जाएगा तो लड़कों को लैंगिक समानता की पहली शिक्षा मिलेगी। इससे घर से बाहर कदम रखने के बाद लड़कियों के प्रति उनका रवैया भी काफी सम्मानजनक रहेगा।
इस सिलसिले को समाज और स्कूलों द्वारा आगे बढ़ाना होगा। परिवार में लैंगिक समानता की जो शिक्षा लड़कों को मिलेगी, उसे मजबूत बनाने की जिम्मेदारी समाज तथा शिक्षा संस्थानों की भी है। इसी से लड़कियों के प्रति लड़कों की मानसिकता बदलेगी। मानसिकता बदलने पर ही हम महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने की अपेक्षा कर सकते हैं।