वर्तमान विधानसभा चुनाव के मध्य निर्वाचन आयोग की भूमिका फिर बहस के केंद्र में है. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं. पिछले कुछ वर्षो में हुए चुनावों में किसी न किसी कोने से चुनाव आयोग का विरोध और उसकी आलोचना अवश्य हुई.
राजनीतिक-वैचारिक विभाजन आज इतना तीखा हो गया है कि किसी भी विषय पर निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण तरीके से एक राय कायम करना संभव नहीं. वास्तव में आयोग राजनीतिक प्रतिष्ठान या नेताओं से मुकदमेबाजी में उलझने से बचता है और सामान्यत: यही यथेष्ट है. संसदीय लोकतंत्न में राजनीतिक दल ही सर्वोपरि हैं.
निर्वाचन आयोग को भी संसद द्वारा पारित कानून के तहत ही शक्तियां प्राप्त हैं. सारे सांसद किसी न किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि हैं. एक समय था जब चुनाव आयोग अपनी अतिसक्रियता में न्यायालयों का दरवाजा खटखटाता था. उसे कभी अपेक्षित सफलता नहीं मिली क्योंकि संविधान और कानून के तहत उसकी सीमाएं बंधी हुई हैं.
उच्चतम न्यायालय के संकेत के साथ चुनाव आयोग द्वारा मामला तक वापस लिया गया. 2019 लोकसभा चुनाव में नेताओं के बयानों संबंधी याचिका पर जारी नोटिस के जवाब में आयोग ने कहा था कि इन मामलों में कदम उठाने के संबंध में उसके अधिकार सीमित हैं. चुनाव किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल है. चुनाव अगर निष्पक्ष, स्वच्छ और शांतिपूर्ण नहीं होगा तो उससे निर्वाचित प्रतिनिधियों वाली संसद, राज्य विधायिकाएं या स्थानीय शासन के निकाय कहां से लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरने वाले साबित होंगे!
चुनाव को निष्पक्ष, स्वच्छ और शांतिपूर्ण बनाने की जिम्मेदारी संविधान ने चुनाव आयोग को ही दी है. जाहिर है, राजनीतिक दलों, मतदाताओं और शासन की समस्त मशीनरी को सामान्यत: आयोग के सहयोगी की भूमिका में रहना चाहिए. हमारी व्यवस्था में शासन के सभी अंगों विशेषकर संवैधानिक संस्थाओं के बीच संतुलन बनाने के साथ संबंधों की मर्यादा रेखाएं बनाई गई हैं.
सबको इसका पालन करना चाहिए. राजनीतिक दलों की भूमिका इसमें सर्वोपरि है. अंतत: नेतृत्व उन्हीं को करना है. दुर्भाग्य से अनेक दल और नेता अपने इस दायित्व का पालन नहीं कर पाते. राजनीतिक दल आपस में एक-दूसरे पर आरोप लगाएं, यह चुनाव प्रक्रिया की स्वाभाविक स्थिति होगी. हालांकि उसमें भी लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादाओं का ध्यान रखा जाना चाहिए.
चुनाव आयोग जैसी संस्था को, जिस पर देश के सारे चुनाव आयोजित करने का गुरुतर दायित्व है, आरोपों के घेरे में लाना लोकतंत्न के लिए ही घातक साबित होगा. चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है. संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयुक्त को समय के पहले पद से हटाने के लिए वही नियम और प्रक्रिया निर्धारित की जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए है.
यह एक पहलू बताने के लिए पर्याप्त है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग को कितना महत्व दिया था. चुनाव आयोग कभी अपने अधिकारों की गलत व्याख्या कर अतिवादी कदम उठाता है, संवैधानिक अधिकारों से परे जाकर कोई फैसला करता है तो उसकी आलोचना या विरोध करने में कोई हर्ज नहीं है. ऐसा पहले हुआ है.
पर चुनाव प्रक्रिया के दौरान चुनावी स्वच्छता कायम रखने वाले कदमों को सरकार के दबाव में सत्तारूढ़ दल या अन्य दबाव में किसी दूसरे दल या नेता के पक्ष में बताने जैसे आरोप चस्पां करना, उसके लिए अपमानजनक, निंदाजनक शब्दों का प्रयोग करना, राजनीतिक संघर्ष की तरह उसके खिलाफ मोर्चा खोलना अस्वीकार्य है.
अगर संवैधानिक संस्थाओं की छवि हमने कलंकित कर दी तो फिर देश में बचेगा क्या? फिर तो ऐसा भयानक दौर आ सकता है जब हर संस्था सवालों के घेरे में रहेगी, कोई किसी का सम्मान नहीं करेगा और कुल मिलाकर अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी.