महाराष्ट्र में विधानभवन परिसर में गुरुवार को जिस तरह से गाली-गलौज, मारपीट हुई, उसने लोकतंत्र के मंदिर को तो कलंकित किया ही है, राजनीति और राजनेताओं के बारे में लोगों की खराब होती धारणाओं को और भी खराब किया है. राजनेता यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते कि यह घटना अचानक हुई है, इसलिए इसे रोका नहीं जा सका. हकीकत यह है कि पिछले कई दिनों से आग सुलग रही थी, जो गुरुवार को भड़क गई.
पिछले हफ्ते ही विधानभवन में आव्हाड़ ने पडलकर को जोर से सुनाने के लिए ‘मंगलसूत्र चोर’ कहा था, जिसके जवाब में बुधवार को पडलकर ने विधानभवन के प्रवेश द्वार पर आव्हाड़ को गालियां दी थीं. इसी रंजिश की परिणति गुरुवार को देखने को मिली, जब दोनों विधायकों के समर्थकों ने एक दूसरे को मां-बहन की गालियां बकीं, कपड़े फाड़े और मारपीट की. जाहिर है कि मारपीट भले ही समर्थकों अथवा कार्यकर्ताओं के बीच हुई हो लेकिन इसके लिए जिम्मेदार नेताओं का आचरण ही है.
विडंबना यह है कि यह घटना कोई अपवाद नहीं है, अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं में बीच-बीच में इस तरह की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं और यह सिलसिला आज से नहीं, पिछले कई दशकों से जारी है. 1 जनवरी 1988 को जानकी रामचंद्रन ने तमिलनाडु विधानसभा में विश्वास मत के लिए विशेष सत्र बुलाया था, क्योंकि अपने पति एमजीआर के निधन के बाद वे मुख्यमंत्री बनीं थीं. लेकिन ज्यादातर विधायक जयललिता के साथ थे.
इस दौरान सियासी गठजोड़ के बीच विधानसभा की बैठक में माइक और जूते चले. हालत यहां तक खराब हो गई थी कि सदन में लाठीचार्ज भी करना पड़ा. 25 मार्च 1989 को भी तमिलनाडु विधानसभा में बजट पेश करने के दौरान जमकर हंगामा हुआ और द्रमुक व अन्नाद्रमुक विधायकों के बीच हिंसा इस कदर बढ़ी कि वहां दंगे जैसे हालात पैदा हो गए थे.
कहा जाता है कि इस दौरान दुर्गा मुरुगन ने जयललिता की साड़ी तक फाड़ने की कोशिश की थी. यूपी विधानसभा में 22 अक्तूबर 1997 को जब कल्याण सिंह को विश्वास मत साबित करना था, उस दौरान विधानसभा में जमकर जूते चले और माइक फेंके गए थे. इस हिंसा में कई विधायक घायल भी हुए. इस तरह की घटनाओं की संख्या अंतहीन है और शायद ही किसी राज्य के नेता इसमें पीछे हों. संसद में भी न जाने कितनी बार अप्रिय स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. निश्चित रूप से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का चुना जाना ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है. राजनीतिक दलों का शायद अब एकमात्र ध्येय अपने निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ाना रह गया है.
चूंकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग धनबल और बाहुबल के कारण प्राय: चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते हैं, इसलिए किसी भी राजनीतिक दल की टिकट उन्हें आसानी से हासिल हो जाती है. निर्वाचित सदनों में अशिष्ट आचरण का दूसरा कारण शायद प्रशिक्षण का अभाव भी है. सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को अगर समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाए कि सदन में उन्हें कैसा आचरण करना है और असभ्य आचरण करने वालों को फटकार लगाई जाए तो शायद इस समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है.
लेकिन हकीकत कदाचित यह है कि राजनेता अपने समर्थकों पर लगाम लगाना तो दूर, शायद खुद ही दहशत फैलाने के लिए उकसाते हैं! उत्पातियों को अगर अपने आका द्वारा बचा लिए जाने का भरोसा न हो तो क्या वे लोकतंत्र के पवित्र मंदिरों को कलंकित करने की हिम्मत जुटा पाएंगे?