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ब्लॉग: चालीस फीसदी टिकट की घोषणा से क्या यूपी में लगेगी कांग्रेस की नैया पार? क्या कहते हैं चुनावी आंकड़े

By अभय कुमार दुबे | Updated: October 27, 2021 09:54 IST

कांग्रेस को जेंडर का लाभ उन्हीं राज्यों में मिलता था जहां उसका हमेशा वर्चस्व रहा है. उसे जेंडर की यह बढ़त उन राज्यों में उस तरह हासिल नहीं होती जहां राजनीति ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक रहती है

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कांग्रेस उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं है. प्रियंका गांधी द्वारा स्त्रियों को चालीस फीसदी टिकट देने के फैसले से कांग्रेस के प्रदर्शन में बहुत थोड़ा सुधार ही हो सकता है, और नतीजे के तौर पर भाजपा को कुछ नुकसान उठाना पड़ सकता है. लेकिन अगर कांग्रेस गोवा, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में यह नीति अपनाती है तो वहां न केवल यह फैसला उसे सत्ताधारी बनने में मदद कर सकता है बल्कि वहां बड़े पैमाने पर स्त्री-विधायक चुन कर आ सकते हैं.

बहरहाल, यह मसला केवल उप्र और पंजाब के चुनावों तक ही सीमित नहीं है. प्रियंका की इस घोषणा के पीछे एक इतिहास है. अगर उसकी रोशनी में देखा जाए तो लग सकता है कि कांग्रेस स्त्री-वोटों के मामले में अपनी पारम्परिक बढ़त दोबारा हासिल करना चाहती है. नरेंद्र मोदी के उभार से पहले कांग्रेस को राज्यों और अखिल भारतीय पैमाने पर भाजपा के ज्यादा स्त्री-वोट मिलते थे. 

इस समय भाजपा आगे है और प्रियंका गांधी अपनी इस घोषणा के जरिये उसकी यह बढ़त वापस छीनने की प्रक्रिया चला सकती हैं. शर्त यह है कि उनकी यह घोषणा केवल उप्र तक ही सीमित न रहे, बल्कि वे इस  पर सारे देश में कांग्रेस के एक स्थायी नीति-वक्तव्य की तरह अमल करें.

अगर ऐसा हुआ तो न केवल कांग्रेस के लिए बल्कि हमारे समग्र लोकतंत्र के लिए प्रियंका की यह घोषणा जबरदस्त ‘गेम चेंजर’ साबित हो सकती है.

राजेश्वरी सुंदर राजन द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि विभिन्न राज्यों में कांग्रेस के स्त्री-वोटों में गिरावट की शुरुआत 2009 के चुनावों से कुछ पहले और बाद में दिखाई पड़ने लगी थी. अगर 2009 के बाद होने वाले पांच चुनावों की तुलना की जाए तो कांग्रेस को स्त्री-मतदाताओं की ओर से मिलने वाली बढ़त का पैटर्न न केवल विभिन्न राज्यों बल्कि किसी एक राज्य विशेष में भी असमान था. 

केवल महाराष्ट्र और कर्नाटक ही दो ऐसे राज्य थे जहां कांग्रेस को लगातार स्त्रियों का समर्थन मिलता रहा था. परंतु स्त्री-वोटों के लिहाज से पिछले चुनावों की तुलना में 2009 में भी इन राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन काफी फीका साबित हुआ. इससे पहले के सालों के दौरान अन्य प्रमुख राज्यों में भी कांग्रेस के पक्ष में जाने वाला यह जेंडर-लाभ काफी ऊंचा-नीचा था. 

केवल आंध्र  प्रदेश और असम ही दो ऐसे राज्य थे जहां कांग्रेस ने स्त्रियों के मतों की दृष्टि से बढ़त हासिल की थी जबकि पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में स्त्री-मतों पर कांग्रेस की पकड़ कमजोर दिखाई पड़ी थी.

इन रुझानों को देखते हुए कहा जा सकता है कि उन दशकों में कांग्रेस को अखिल भारतीय संदर्भ में बेशक जेंडर का लाभ मिलता प्रतीत होता था, परंतु स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर उसका प्रभाव क्षीण पड़ने लगा था. राज्यस्तरीय चुनावों में स्त्रियों का मत अपने आप निर्णायक होने के बजाय पार्टी तथा चुनावी प्रतिस्पर्धा के समूचे माहौल से निर्धारित होता है. 

कांग्रेस को जेंडर का लाभ उन्हीं राज्यों में मिलता था जहां उसका हमेशा वर्चस्व रहा है. उसे जेंडर की यह बढ़त उन राज्यों में उस तरह हासिल नहीं होती जहां राजनीति ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक रहती है और जहां कांग्रेस को कड़ा राजनीतिक मुकाबला करना पड़ता है. इन तमाम स्तरों पर स्त्री-मतों का जेंडरगत आयाम स्वयं में निर्णायक न रहकर क्षेत्रीय राजनीति की गहमागहमी में सिमट जाता है या उससे तय होने लगता है. 

इस तरह कांग्रेस को अखिल भारतीय स्तर पर जेंडर का जो लाभ मिलता दिखता था, वह स्त्रियों के सक्रिय समर्थन के बजाय राज्यस्तरीय जटिलताओं का समेकित परिणाम ज्यादा होता था. जहां तक 2009 के चुनावों का प्रश्न है तो कांग्रेस को वास्तव में छह राज्यों में जेंडर-खामियाजा उठाना पड़ा. परंतु इसके बावजूद राज्यों में पार्टी के चुनावी प्रदर्शन में स्त्री-मतों के इस नुकसान का कोई एक समान असर नहीं पड़ा. 

उदाहरण के लिए हरियाणा में 2004 के बाद स्त्री-मतों में सात प्रतिशत अंकों की गिरावट के बावजूद कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन रहा.

अगर इस विेषण को समग्र चुनावी होड़ प्रोजेक्ट किया जाए तो एक बात तो पता चलती ही है कि कांग्रेस हो या कोई और पार्टी, उसे स्त्री वोटों के मामले में बढ़त तभी  प्राप्त होती है जब वह सत्ता की होड़ में मजबूत दावेदारी करती दिखती है. यह विेषण एक और पहलू की जानकारी देता है कि स्त्रियों के वोट हमेशा और हर समय चुनाव जीतने के लिए जरूरी नहीं होते. 

ऊपर हरियाणा का उदाहरण दिया गया है जो बताता है कि 2004 में औरतों के कम वोट मिलने के बावजूद कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया था. राजेश्वरी सुंदर राजन का यह तथ्यगत विेषण प्रियंका गांधी के लिए एक नसीहत भी पेश करता है कि अगर उन्हें कुछ करके दिखाना है तो धीरे-धीरे ही सही, अपनी और अपनी पार्टी की हवा बनानी होगी. यह काम उस शैली में नहीं हो सकता जिसमें उन्होंने पंजाब की कांग्रेसी राजनीति का संचालन किया है.

टॅग्स :प्रियंका गांधीकांग्रेसउत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव
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