वह 1940 का दशक था. देश में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा था. देश और दिल्ली में भी लगातार आंदोलन हो रहे थे. मशहूर उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो उन दिनों दिल्ली में थे. वे ऑल इंडिया रेडियो में काम कर रहे थे. मंटो के साथ उर्दू के मशहूर अफसानानिगार कृष्ण चंदर भी काम करते थे. जब भी उन्हें खाली समय मिलता, वे दोनों दिल्ली की खाक छानने के लिए निकल पड़ते. यह नामुमकिन है कि ये दोनों दिल्ली-6 में मिर्जा गालिब के घर और बस्ती निजामुद्दीन में उनकी कब्र में कभी न गए हों. मंटो ने दिल्ली में रहते हुए ‘मिर्जा गालिब’फिल्म लिखी थी. ये 1955 में रिलीज हुई थी.
गालिब की मजार तमाम लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती है. उर्दू शायरी पढ़ने वाले और गालिब पर गंभीर रिसर्च करने वाले भी यहां आते हैं. एक दौर था जब यहां पाकिस्तानी भी नियमित रूप से दस्तक देते थे. यह उन दिनों की बात है जब दोनों देशों के नागरिक सरहद के आर-पार आराम से आते-जाते थे. गालिब अकादमी के सचिव डॉ. अकील अहमद कहते हैं, ‘‘जो गालिब के गहरे दार्शनिक विचारों पर शोध करते हैं, वे भी यहां हैं.’’
गालिब की मजार आज जिस रूप में है, इसे खड़ा करने में हमदर्द दवाखाना के फाउंडर हकीम अब्दुल हमीद का अहम रोल था. उन्होंने ही गालिब अकादमी स्थापित की थी. वे कहते थे कि मजार और इसके आसपास हालत काफी खराब थी. उन्होंने इसका पुनर्निर्माण कराया. अगर बात गालिब अकादमी की करें तो इसका उद्घाटन 1969 में राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन ने किया था.
यहां गालिब को समर्पित एक संग्रहालय है, जिसमें उनकी प्रतिमा, दुर्लभ पुस्तकें, दस्तावेज और प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों की एक गैलरी है. हकीम अब्दुल हमीद ने इस लेखक को 1995 में बताया था, “गालिब की मजार का क्षेत्र जर्जर था जब तक कि उन्होंने इसे पुनर्जीवित करने के लिए कदम नहीं उठाया था.”
‘मिर्जा गालिब’ 1954 में रिलीज हुई तो उसकी स्पेशल स्क्रीनिंग राष्ट्रपति भवन में भी हुई. राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश की कई गणमान्य हस्तियों के साथ इसे देखा और पसंद किया. फिल्म देखने के बाद पंडित नेहरू ने सोहराब मोदी से कहा, ‘‘आपने गालिब को जीवित कर दिया है.’’
इसमें भारत भूषण ने गालिब की भूमिका निभाई. मिर्जा गालिब ने अखिल भारतीय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक और हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति का रजत पदक जीता. बेशक, मिर्जा गालिब फिल्म ने उस अजीम शायर को जिंदा कर दिया था. इसका श्रेय मंटो को भी जाता है.