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डब्ल्यूएचओ की बैठकों की रिकॉर्डिंग से पता चलता है कि सुधार को लेकर दबाव में है एजेंसी

By भाषा | Updated: November 11, 2020 16:15 IST

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जिनेवा, 11 नवंबर (एपी) कोरोना वायरस का संक्रमण फिर से फैलने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) दबाव में है। उस पर अपने अंदर सुधार करने का दबाव है, हालांकि साथ ही उम्मीद भी है कि अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन स्वास्थ्य एजेंसी छोड़ने के वॉशिंगटन के निर्णय को वापस ले लेंगे।

इस हफ्ते चल रही वार्षिक बैठक में डब्ल्यूएचओ की महामारी से निपटने में ज्यादा मजबूत और स्पष्ट भूमिका नहीं होने को लेकर आलोचना की गई। उदाहरण के लिए वायरस के शुरुआती दिनों की निजी अंदरूनी बैठकों में शीर्ष वैज्ञानिकों ने कुछ देशों के रूख को ‘‘दुर्भाग्यपूर्ण प्रयोगशाला करार दिया जो वायरस का अध्ययन कर रहे हैं’’ और क्या होता है यह देखने का ‘‘बड़ा’’ अवसर बताया गया। यह जानकारी ‘एसोसिएटेड प्रेस’ को हासिल रिकॉर्डिंग से पता चलती है। बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य एजेंसी ने सार्वजनिक तौर पर सरकारों की उनकी प्रतिक्रिया के लिए सराहना की।

बाइडन ने जून में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लिए गए निर्णय को पलटने का वादा किया है, जिन्होंने डब्ल्यूएचओ के कोष में कटौती कर दी और अमेरिका एजेंसी से अलग हो गया। डब्ल्यूएचओ सदस्य देशों की इस मांग के समक्ष भी झुक गया है कि महामारी से निपटने में इसके प्रबंधन की समीक्षा स्वतंत्र समिति करेगी। डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक टेड्रोस अधानोम घेब्रेयेसस ने सोमवार को कहा कि एजेंसी ने इसे मजबूत बनाने के ‘‘हर प्रयास’’ का स्वागत किया है।

डब्ल्यूएचओ के समक्ष एक ऊहापोह की स्थिति यह भी है कि उसके पास कोई बाध्यकारी शक्तियां नहीं है या अधिकार नहीं है कि वह देशों के अंदर स्वतंत्र रूप से जांच करे। इसके बजाय स्वास्थ्य एजेंसी पर्दे के पीछे वार्ता और सदस्य देशों के सहयोग पर निर्भर है।

डब्ल्यूएचओ की अंदरूनी बैठकों की दर्जनों लीक रिकॉर्डिंग और ‘द एसोसिएटेड प्रेस’ को जनवरी से अप्रैल के बीच हासिल दस्तावेजों के मुताबिक, आलोचकों का कहना है कि अपने सदस्य देशों से जिरह करने से बचने के कारण डब्ल्यूएचओ को कीमत चुकानी पड़ रही है। कोविड-19 के फैलने के बाद डब्ल्यूएचओ जापान, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे दान देने वाले बड़े देशों से बात करने से बचता रहा है।

कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि डब्ल्यूएचओ द्वारा दबाव बनाने में विफल रहने के कारण देशों ने महामारी के प्रति खतरे वाली नीतियां बनाईं जिससे वायरस के प्रसार को रोकने के प्रयासों में संभवत: कमजोर रूख अपनाया गया।

लंदन में क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी की अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रोफेसर सोफी हर्मन ने कहा, ‘‘हम चाहते हैं कि डब्ल्यूएचओ ज्यादा मजबूत हो और अपनी राजनीतिक शक्ति का उपयोग खुलेआम आलोचना करने में करे क्योंकि परिणाम बड़े घातक होते जा रहे हैं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘यह उनका स्पेनिश फ्लू जैसा समय है...देश जब संदिग्ध काम कर रहे हैं तो उनके खिलाफ नहीं बोलकर डब्ल्यूएचओ अपने प्राधिकार को कमतर कर रहा है और दुनिया में कोहराम मचा हुआ है।’’

अन्य विशेषज्ञों ने कहा कि डब्ल्यूएचओ के लिए तब तक खुलकर बोलना राजनीतिक रूप से सही नहीं है जब तक देश एजेंसी को और ताकत नहीं देते तथा देशों की निंदा करने का अधिकार नहीं देते। यह विकल्प हाल में जर्मनी और फ्रांस ने प्रस्तावित किया है।

ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ जिनेवा में वैश्विक स्वास्थ्य केंद्र की सह निदेशक सूरी मून ने कहा, ‘‘अगर टेड्रोस सदस्य देशों के प्रति काफी आक्रमक रूख अपनाते हैं तो इसके दुष्परिणाम होंगे।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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