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मोदी राज में केंद्र व राज्यों के संबंधों में बढ़ी तल्खी : मोइली

By भाषा | Updated: May 30, 2021 14:52 IST

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नयी दिल्ली, 30 मई वरिष्ठ कांग्रेस नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है कि वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद केंद्र और राज्यों के संबंधों में तल्खी काफी बढ़ी है क्योंकि केंद्र सरकार ने ‘‘राष्ट्रीय सोच’’ को नजरअंदाज कर ‘‘व्यक्तिगत सोच’’ को तरजीह दी।

केंद्र एवं राज्यों के संबंधों पर प्रशासनिक सुधार आयोग के पूर्व अध्यक्ष मोइली से ‘भाषा’ के पांच सवाल और उनके जवाब:

सवाल: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच चक्रवात ‘यास’ को लेकर बुलाई गए एक बैठक को लेकर हुए विवाद के बाद राज्य के प्रमुख सचिव को केंद्र सरकार ने दिल्ली वापस बुला लिया। इस फैसले को आप कैसे देखते हैं?

जवाब: यह पूरी तरह से एक गलतफहमी का मामला है। केंद्र सरकार को ‘‘बड़े भाई’’ (वरिष्ठता थोपने) की तरह काम नहीं करना चाहिए। वह राज्य सरकार की सहायता के लिए वहां गए थे। इससे समस्या का हल नहीं होगा। संघीय व्यवस्था में राज्य को भी सहयोग करना होता है। केंद्र के सहयोग से राज्यों को योजनाओं को क्रियान्वित करना होता है। केंद्र भी महज आर्थिक मदद के माध्यम से समस्या का समाधान नहीं कर सकता। जो हुआ, वह सुखद तो कतई नहीं है। इसके लिए केंद्र एवं राज्य सरकार बराबर जिम्मेदार हैं। सिर्फ गलतफहमी की वजह से प्रमुख सचिव को वापस बुला लेना अच्छा नहीं है। यह संघीय व्यवस्था पर हमला है। प्रधानमंत्री को भी मुख्यमंत्री में गलतियां ढूंढने के बजाय उनका सहयोग करना चाहिए।

सवाल: पिछले कुछ दशकों में केंद्र एवं राज्यों, खासकर विपक्ष शासित राज्यों के बीच सहयोग की जगह तनाव हावी हो गया दिखता है। इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है?

जवाब: यह उचित समय है कि सरकार राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाए। मतभेदों के चलते इसे भुला दिया गया है, जबकि इसकी बैठकें राज्यों को एकता के सूत्र में बांधती थीं। योजना आयोग का क्या हश्र कर दिया गया है, इससे आप वाकिफ ही हैं। आज की तारीख में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो पूरे देश की भावना को प्रदर्शित करती हो। योजना आयोग वित्तीय एकता के लिए था, तो राजनीतिक एकता के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद। योजना आयोग स्वायत्त था, उसके पास शक्तियां थीं, लेकिन इसकी जगह नीति आयोग ने ले ली है, जो केंद्र सरकार का महज एक विभाग बनकर रह गया है। इसकी कोई स्वायत्तता नहीं है और ना ही स्वतंत्रता है। योजना आयोग सर्वश्रेष्ठ था और उसने देश की सेवा की है। इसे पुनर्जीवित करना होगा। संघवाद को मजबूत करने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद सर्वश्रेष्ठ मंच है। इसे फिर से बहाल करना होगा।

सवाल: केंद्र एवं राज्यों के बीच कोरोना वायरस काल में भी जीवन रखक दवाओं, ऑक्सीजन की आपूर्ति और टीकाकरण को लेकर तल्खी देखी गई। क्या यह नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए उचित है?

जवाब: कतई नहीं। कोलकाता (पश्चिम बंगाल) हो या बेंगलुरु (कर्नाटक) हो या फिर तिरुवनंतपुरम (केरल) हो, सभी स्थानों के लोग एक ही है। सभी भारतीय हैं और सभी के प्रति भारत सरकार का कर्तव्य है। वह भेदभाव नहीं कर सकती। जिन राज्यों में विपक्षी दलों का शासन है, वहां के नागरिक कोई विदेशी तो नहीं हैं। वे भी भारत का हिस्सा हैं। भेदभाव करना खतरनाक चलन है और यह देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा है। हम हर चीज का राजनीतिकरण करने लगते हैं। प्रधानमंत्री अपनी चुनावी रैलियों में ‘डबल (दोहरे) इंजन’ की सरकार की बात करते हैं। उनका यह कहना भी खतरनाक है। यदि कोई राज्य विपक्ष शासित है तो क्या वह ‘सिंगल (एकल) इंजन’ है और भाजपा शासित राज्य है तो क्या वह डबल इंजन है। संघीय व्यवस्था में यह कैसे हो सकता है। यह कहना ही आपके भेदभाव को दर्शाता है।

सवाल: भाजपा दावा करती है कि वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में सहकारी संघवाद मजबूत हुआ है। आप इसकी कैसे व्याख्या करेंगे?

जवाब: इसके उलट केंद्र और राज्यों के संबंधों में तनाव ही नहीं, बल्कि बेहद तल्खी भी आई है। हमें इस पर गौर करना होगा। ऐसी आपदाओं के समय कांग्रेस और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने कभी राजनीति नहीं की, लेकिन आज हर चीज का राजनीतिकरण कर दिया जाता है। प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार को आत्म मंथन करना होगा। उन्हें ‘‘बड़े भाई’’ के रूप में नहीं बल्कि राज्यों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।

सवाल: आप तो दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्यक्ष भी रहे हैं। क्या सुझाव देना चाहेंगे केंद्र को?

जवाब: प्रशासनिक आयोग के अध्यक्ष के रूप में मैंने आपदा प्रबंधन सहित विभिन्न पहलुओं पर 15 सुधारों की रिपोर्ट दी थी, लेकिन इस सरकार ने उसे भुला दिया है। 2014 के बाद बनी मोदी सरकार का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि संस्थागत मामलों में उसकी याद्दाश्त कमजोर है जबकि कांगेस ने हमेशा इसे अपने जेहन में रखा। देश को राजनीतिक याददाश्त नहीं, संस्थागत याददाश्त (इंस्टीट्यूशनल मेमोरी) की जरूरत है। उसे यह याद दिलाना पड़ेगा। विभिन्न सुधारों पर जो 15 रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई हैं उन्हें लागू करना होगा। आज अराजकता और भ्रम की स्थिति है क्योंकि एक व्यक्ति हर चीज पर नियंत्रण करना चाहता है। एक व्यक्ति की सोच कभी राष्ट्रीय सोच नहीं हो सकती, बल्कि राष्ट्रीय सोच ही प्रधानमंत्री की सोच होनी चाहिए। कुल मिलाकर राज्यों को पर्याप्त स्वायत्तता देनी होगी। इसे छीना नहीं जा सकता।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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