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गुजरातः सियासत ने तो छला, आदिवासी का कैसे हो भला?

By महेश खरे | Updated: May 18, 2019 09:13 IST

सियासत ने विकास के नाम पर आदिवासियों से जंगल और जमीन का हक तो छीन लेने का रास्ता खोल दिया, लेकिन उसके जीवन स्तर में बदलाव लाने के कोई प्रयास नहीं हुए.

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जब जब चुनाव आते हैं तब तब आदिवासी उत्थान की बातें होती हैं. सियासत ने विकास के नाम पर आदिवासियों से जंगल और जमीन का हक तो छीन लेने का रास्ता खोल दिया, लेकिन उसके जीवन स्तर में बदलाव लाने के कोई प्रयास नहीं हुए. गुजरात में तो यही हाल है. सच्चा हितैशी कौन है? इस पर आदिवासी असमंजस में रहा है. उसके सामने भाजपा और कांग्रेस के अलावा आदिवासी संगठन हैं. पहले कांग्रेस इन्हें वोट बैंक मानती थी, धीरे-धीरे यह भाजपा की ओर शिफ्ट होता गया.

गुजरात में लगभग 15% आदिवासी समुदाय के लोग हैं. दक्षिण गुजरात में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है. तापी, वलसाड, डांग, नवसारी, भरूच और छोटा उदैपुर जिलों में आदिवासियों का प्रभुत्व है. इससे सटे दो संघ प्रदेश दादरा नगर हवेली और दमणदीव संसदीय क्षेत्र भी आदिवासी बहुल हैं. दक्षिण गुजरात से सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात तक की आदिवासी पट्टी में भी रहने वाला जल, जंगल और जमीन का असली मालिक तेजी से मजदूर बनता जा रहा है.

कारण, आदिवासी योजनाओं का लाभ गैर आदिवासी उठा ले जाते हैं. योजनाएं हैं पर उन पर अमल कछुआ चाल से चल रहा है. आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की खानापूर्ति ही हो रही है. आधी अधूरी पढ़ाई करके रोजीरोटी की चिंता में आदिवासी युवा या तो शहरों में पलायन कर रहा है अथवा गांव में ही खेतिहर मजदूर बन जाता है. दोनों सियासी पार्टियां यह भली भांति जानती हैं कि आदिवासी वोट बैंक को साधे बिना चुनावी वैतरणी पार नहीं लगने वाली. इसीलिए पीएम मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दोनों ने ही आदिवासी इलाकों से ही अपनी-अपनी चुनावी रैलियों की शुरूआत की.

लोकसभा चुनाव में फर्जी आदिवासी बड़ा मुद्दा रहा. दरअसल शहरी आबादी बड़ी तेजी से जंगलों का रु ख पकड़ रही है. इस कारण बड़े पैमाने पर गैर आदिवासी फर्जी प्रमाणपत्र बनवा कर आदिवासियों की सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं. अशिक्षा के कारण आदिवासी कुछ कर नहीं पा रहा है. उल्टे आदिवासियों के सरनेम में थोड़ा परिवर्तन कर उन्हें गैर आदिवासी करार दे दिया गया है. कहीं बढ़ई बना दिया तो कहीं लोहार.

विधानसभा की लगभग 40 सीटें आदिवासी बहुल हैं. घर और खेत खोकर मजदूर बनने को बेबस आदिवासी इलाकों में गुजरात और केंद्र सरकारों ने विकास तो किया लेकिन वह भी मात्र इंफ्रास्ट्रक्चर का. सड़कें बनीं, बांध बने लेकिन खामियाजा आदिवासी को ही हुआ. उसके हाथ से जंगल की जमीन निकल गई. घर और खेत खोकर आदिवासी मजदूर बनने को बेबस है. उकाई डैम बना तो उसमें जिन आदिवासियों की जमीनें गईं वे आज जिस जमीन पर खेती कर रहे हैं वह वन विभाग की है जहां से विभाग उन्हें खदेड़ता रहता है.

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