नई दिल्लीः समाज इन दिनों तरह-तरह की संकीर्णताओं और कट्टरताओं से रूबरू है। इन स्थितियों से निपटने के लिए वैचारिक रोशनी की जरूरत है। दारा शुकोह एक ऐसे ही रोशनख्याल ऐतिहासिक शख्सियत हैं। उन्होंने हिंदुस्तान में मेलजोल पर आधारित संस्कृति को विकसित करने का सपना देखा था। जिसे उन्होंने संगम संस्कृति का नाम दिया। उनके विचार संकीर्णताओं और कट्टरताओं से बाहर निकलकर मेलजोल पर आधारित समाज बनाने में हमारे लिए आज भी सहयोगी हो सकते हैं। सुविख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने ऐसी शख्सियत के जीवन और विचारों पर किताब लिखकर एक जरूरी काम किया है। यह बातें मैनेजर पाण्डेय की स्मृति में आयोजित ‘कृति चर्चा’ में वक्ताओं ने कहीं।
यह आयोजन मैनेजर पाण्डेय की जयन्ती के अवसर पर राजकमल प्रकाशन की ओर से गुरुवार शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किया गया। कार्यक्रम में जेएनयू के फ़ारसी विभाग के प्रोफ़ेसर अख़लाक़ अहमद आहन, कवि-कथाकार-आलोचक अनामिका, इतिहासकार तनुजा कोठियाल, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रोफेसर सरवरुल हुदा और आलोचक-सम्पादक आशुतोष कुमार बतौर वक्ता मौजूद रहे। इस दौरान वक्ताओं ने मैनेजर पाण्डेय की सद्य: प्रकाशित किताब ‘दारा शुकोह : संगम-संस्कृति का साधक’ के सन्दर्भ में उनके रचनाकर्म और वैचारिक सरोकारों पर चर्चा की।
मैनेजर पाण्डेय की सहधर्मिणी चंद्रा सदायत ने इस मौके पर कहा, एक साहित्यकार को सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि हम आज उनके कृतित्व को इस रूप में याद कर रहे हैं। मुग़ल शहजादे दारा शुकोह पर आधारित यह शोध पुस्तक उनकी एक महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा थी जिस पर वे लगभग तीस वर्षों से काम कर रहे थे।
हमारे देश की संगम संस्कृति जो कि आज टूट रही है, विभाजित हो रही है, उसकी इस समय में बहुत जरूरत है और यह किताब उसे पूरा करती है। आशुतोष कुमार ने मैनेजर पाण्डेय को याद करते हुए कहा, साहित्य में सामाजिक-राजनीतिक सरोकार और इतिहास दृष्टि पर जिन लोगों ने जोर दिया और उसके लिए संघर्ष किया उनमें मैनेजर पाण्डेय का नाम उल्लेखनीय हैं।
वे अपने जीवन के आखिर तक कल्चरल एक्टिविज्म से जुड़े रहे। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि साहित्य हमेशा समाज के भीतर ही वजूद रखता है और उसे समाज के सन्दर्भ में ही रचा और पढ़ा जा सकता है। इस किताब में दारा शुकोह एक शहजादा और भावी शासक कम; एक लेखक, कवि, शायर, सूफ़ी दार्शनिक और अध्यात्म की खोज करने वाला व्यक्ति अधिक है।
यह किताब हिन्दी में दारा शुकोह के सत्य-शोधक दार्शनिक, सूफ़ी और शायर रूप की व्याख्या करने के कारण महत्वपूर्ण है। इसे हिन्दी में दारा संबंधी बहस के प्रस्थान बिन्दु के रूप में देखा जाना चाहिए। तनुजा कोठियाल ने कहा, अक्सर हम दारा शुकोह को मुगलकाल में एक अपवाद की तरह देखते हैं लेकिन असल में वो कोई अपवाद नहीं है।
हम अगर मुगलकाल के इतिहास को देखें तो उसमें एक निरन्तरता दिखती है जिसमें उसी तरह के काम हो रहे थे जो दारा कर रहे थे। वो चाहे अकबर का काल हो या जहाँगीर और शाहजहाँ का काल हो। वह ऐसा काल था जिसमें बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथ रचे जा रहे थे। अलग-अलग भाषाओं के साहित्य और ऐतिहासिक-पौराणिक ग्रंथों का दूसरी भाषाओं में अनुवाद हो रहा था।
उन्होंने कहा कि आज के समय में मध्यकाल का इतिहास पढ़ाना भी एक मुश्किल काम है। ऐसे में खोए हुए संदर्भों को सामने लाना बहुत जरूरी है और उसके लिए यह एक बहुत जरूरी किताब है। सरवरुल हुदा ने मैनेजर पाण्डेय के व्यक्तित्व को याद करते हुए कहा कि मैंने बहुत लोगों को देखा है लेकिन इतना सोचनेवाला इनसान दूसरा नहीं देखा।
वो जीवन के आखिरी दिनों तक एक विद्यार्थी की तरह जिज्ञासु बने रहे। एक पाठक और एक शिक्षक के रूप में मैंने उनको जैसा देखा कि उनमें गुंजाइशें बहुत होती थीं। दारा शुकोह पर शोध करते हुए उन्होंने दारा को अपने वजूद का हिस्सा बना लिया। हम गौर करें तो इस किताब में वो सियासत नहीं है जिसे हम अक्सर उस कालखंड के लिए देखते हैं।
उन्होंने कहा, दारा शुकोह ने जो काम किए वो इतने लंबे समय में कई अलग-अलग तर्जुमों से गुजरते हुए हम तक उसी रूप में नहीं पहुँच पाए जैसे वो असल में थे। वो उसकी व्याख्या करनेवालों की विचारधाराओं से प्रभावित होते रहे। लेकिन सबसे जरूरी बात यही है कि दारा शुकोह का मिजाज ऐसा था जो चीजों को समग्रता में देख सकता था।
अख़लाक़ अहमद आहन ने भारतीय साझा संस्कृति की परंपरा को रेखांकित करते हुए कहा, दारा शुकोह ने संगम संस्कृति के लिए जो काम किए वो उल्लेखनीय है लेकिन दारा वो पहला व्यक्ति नहीं था जिसने ये काम किए और न ही अकबर ये काम करनेवाला पहला व्यक्ति था। यह हमारी बहुत पुरानी परंपरा रही है।
हमारी भारतीय संस्कृति में जो ज्ञान परंपरा रही है उसमें कभी भी चीजों को व्यक्ति की पहचान से जोड़कर नहीं देखा जाता था। मजहबी पहचान को राजनीति से जोड़कर देखना औपनिवेशिक काल की देन है। हमारी आज़ादी की लड़ाई में कितने ही लोग थे जो पक्के मजहबी थे लेकिन उनमें आपस में कोई बैरभाव नहीं था। मजहबी होना कोई खराबी नहीं है।
समस्या तब आती है जब हम मजहब को पहचान की राजनीति से जोड़कर देखते हैं। उन्होंने कहा, दारा शुकोह बुनियादी तौर पर एक सच्चा दार्शनिक है जिसकी अपनी एक तलाश है। एक सूफ़ी दार्शनिक के तौर पर वो मजहबों को समझने की कोशिश करता है। पश्चिम के दार्शनिकों की भारतीय चिन्तन परंपरा में दिलचस्पी पैदा करने का श्रेय भी दारा शुकोह को जाता है।
दारा पर इस शोध के जरिए मैनेजर पांडेय ने एक तरफ हिन्दी और उर्दू के बीच और दूसरी तरफ साहित्य और विभिन्न समाज विज्ञानों के बीच जो पुल बनाए, वे दूर तक उनकी प्रिय संगम संस्कृति को मजबूत बनाने का काम करते रहेंगे। अनामिका ने धर्म और मार्क्सवाद के बीच नए रचनात्मक संवाद की संभावना की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि दारा शुकोह जिस संगम संस्कृति का साधक था उसका यह साझापन कैसे बचाया जाए यह हम सबकी साझी चिन्ता है। यह किताब भी उसी वाजिब चिन्ता से निकली है।