मशहूर शायर फैज अहमद फैज की कविता हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे को लेकर विवाद बढ़ने के बाद आईआईटी कानपुर ने एक समिति गठित कर दी है। ये समिति ये तय करेगी कि फैज की नज्म हिंदू विरोधी या फिर नहीं। इस पर जावे अख्तर ने अपनी राय व्यक्त की थी। अब इस पर गुलजार ने अपनी राय रखी है।
फैज अहमद फैज की कविता को लेकर इन दिनों कंट्रोवर्सी चल रही है। ऐसे में इस विवाद पर कई लोग अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं अब गुलजार ने कहा है कि कवि के साथ अन्याय है।
गुलजार ने कहा ही में कहा है कि यह फैज साहब जैसे महान कवि के साथ अन्याय है उनकी रचना, उनकी कविता के साथ अन्याय है। इतने बड़े लेवल के कवि को रिलीदन और मजहब लेकर इस तरह से बोलना मुनासिब नहीं है।
गुलजार ने आगे कहा है कि उन लोगों के लिए गलत है, जो ऐसा कर रहे हैं। उनकी रचना जिया उल हक के जमाने की है। उसे आउट ऑफ कॉन्टेक्सट जोड़ना उन लोगों के लिए गलत है जो इसे इस तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं।
किसी भी रचना को उसके कार्यकाल या उस समय रचना लिखी गई थी, उस समय के कॉन्टेक्स्ट को लेकर ही पढ़ा और समझा जाना चाहिए।
जानें पूरा मामला
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी कानपुर (IIT Kanpur) ने एक समिति गठित की है, जो यह तय करेगी कि क्या फैज अहमद फैज की कविता 'हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे' हिंदू विरोधी है या नहीं। आईआईटी कानपुर के फैकल्टी सदस्यों की शिकायत के बाद ये समिति गठित की गई है। फैकल्टी सदस्यों का दावा है कि नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ हुए विरोध-प्रदर्शनों के दौरान यह 'हिंदू विरोधी' गीत गाया गया था।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, समिति इस बात की जांच करेगी कि क्या छात्रों ने धारा-144 का उल्लंघ किया और सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री पोस्ट की। अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए प्रसिद्ध रहे फैज अहमद फैज ने 1979 में यह नज्म लिखी थी। फैज ने यह कविता सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक के संदर्भ में लिखी थी और पाकिस्तान में सैन्य शासन के विरोध में लिखी थी। तानाशाही का विरोध करने वाले फैज कई सालों तक जेल में भी रहे।
पढ़िए पूरी कविता, जानें विवादहम देखेंगेलाज़िम है कि हम भी देखेंगेवो दिन कि जिसका वादा हैजो लोह-ए-अज़ल में लिखा हैजब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां रुई की तरह उड़ जाएँगेहम महक़ूमों के पाँव तलेये धरती धड़-धड़ धड़केगीऔर अहल-ए-हक़म के सर ऊपरजब बिजली कड़-कड़ कड़केगीजब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे सेसब बुत उठवाए जाएँगेहम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगेसब ताज उछाले जाएँगेसब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह काजो ग़ायब भी है हाज़िर भीजो मंज़र भी है नाज़िर भीउट्ठेगा अन-अल-हक़ का नाराजो मैं भी हूँ और तुम भी होऔर राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदाजो मैं भी हूँ और तुम भी हो
नज्म की कुछ पंक्तियों ने विवाद खड़ा कर दिया है। आईआईटी के उपनिदेशक मनिंद्र अग्रवाल के अनुसार, ‘वीडियो में छात्रों को फैज की नज्म गाते हुए देखा जा रहा है, जिसे हिंदू विरोधी भी माना जा सकता है।’