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एनके सिंह का ब्लॉगः महाराष्ट्र, बिहार के लिए भाजपा की नीति अलग-अलग क्यों?

By एनके सिंह | Updated: January 19, 2020 09:39 IST

पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यह भी जानता है कि नीतीश की सरकार में भाजपा के मंत्रियों की कोई हैसियत नहीं रह गई है और कार्यकर्ताओं को जिला स्तर पर रोजाना सरकारी अफसरों से अपमान का सामना करना पड़  रहा है.

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विगत गुरुवार को बिहार के वैशाली जिले की एक जनसभा में बोलते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि बिहार में चुनाव मुख्यमंत्नी और जदयू नेता नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. इस वक्तव्य ने उस पुरजोर मांग पर विराम लगा दिया जो दो दिन पहले ही पार्टी के विधायक संजय पासवान के उस दावे से पनपा था कि ‘अगला मुख्यमंत्नी उनकी पार्टी से होना चाहिए क्योंकि जनता नीतीश कुमार के थके चेहरे से ऊब चुकी है.’ उधर नीतीश कुमार लगातार एनपीआर और एनआरसी को अपने यहां लागू करने के प्रति नकारात्मक संदेश दे रहे हैं. लेकिन पूरे भाषण में शाह ने एक बार भी इनका जिक्र नहीं किया जबकि गए थे नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर लोगों को समझाने. झारखंड में हाल में हुए चुनाव में भाजपा के खिलाफ लड़ कर उसे हराने में जदयू की भूमिका भी रही है.

फिर आखिर भाजपा के सामने कौन सी मजबूरी है, जबकि वह जानती है कि संजय पासवान की भावना उस राज्य में हर भाजपा कार्यकर्ता की भावना है. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यह भी जानता है कि नीतीश की सरकार में भाजपा के मंत्रियों की कोई हैसियत नहीं रह गई है और कार्यकर्ताओं को जिला स्तर पर रोजाना सरकारी अफसरों से अपमान का सामना करना पड़  रहा है. अगर अकेले चुनाव लड़ने की बात हो तो बिहार में भाजपा घुटने टेकते हुए जदयू को बराबर सीटें देती है और जदयू के कम सीटें जीतने के बावजूद सिंहासन भी वर्षो से उन्हीं को सौंपती रही है. फिर महाराष्ट्र में शिवसेना की जिद क्यों गलत थी?

राजनीतिक दल धर्मार्थ काम नहीं करते. संगठन का विस्तार और उस विस्तार से हासिल जनमत के बूते सत्ता पाना उसका मूल लक्ष्य होता है. भाजपा अगर पश्चिम बंगाल, केरल, पंजाब और कर्नाटक में पांव पसार रही है जबकि ऐसा करने में उसके कार्यकर्ताओं की हत्या हो रही है और प्रतिक्रि या में कार्यकर्ता भी हत्या कर रहे हैं तो यह सब अयाचित किंतु अपरिहार्य है. बिहार विकास के हर पैरामीटर्स पर पिछले 15 साल के नीतीश कुमार के शासन में (जिसमें भाजपा भी शरीक है) रसातल में रहा है और उबरने की गुंजाइश नहीं दिख रही है. 

ऐसे में क्या भाजपा की गैरत यह गवारा करती है कि वह गठजोड़ कर फिर सत्ता में आए और हर तीसरे दिन मुख्यमंत्नी उसे उसकी हैसियत बताएं. चुनाव विज्ञान का प्रारंभिक छात्न भी कह सकता है कि जाति और धर्म में बंटे इस राज्य में अगर किसी एक पार्टी में दसियों वर्ष तक अकेले दम पर शासन करने की क्षमता है तो वह भाजपा है. परंतु इसे अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि उस जैसा कोई राष्ट्रीय दल जब किसी व्यक्ति या दल का साथ देता है तो उस व्यक्ति या दल का कद बढ़ता है. कालांतर में अगर बड़ी पार्टी अपना विस्तार नहीं करती तो वह छोटा दल उस स्पेस को भरने लगता है और अकर्मण्यता का ठीकरा बड़े दल के माथे फूटता है. निराश कार्यकर्ता समाज में रचनात्मक कार्य से अपनी स्वीकार्यता बनाने की जगह जातिवादी और सांप्रदायिक हिंसा का सहारा लेने लगता है और इस बीच जदयू का जनाधार बिना कुछ किए 2.6 प्रतिशत से आज 16 प्रतिशत तक पहुंच जाता है.

अगर बिहार भाजपा में केरल इकाई वाला जुझारूपन होता तो सन 2015 के लालू-नीतीश ‘बेमेल-लिहाजा-अस्थायी’ गठजोड़ से दूर स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार और विकासहीनता के मुद्दे पर सरकार का विरोध कर  हिंदू कार्ड खेलते हुए (क्योंकि नीतीश रणनीति के तहत मुस्लिम कार्ड खेलने के शौकीन हैं) इतनी तेजी से अपना जनाधार बना सकती थी कि नीतीश राजनीतिक परिदृश्य के हाशिये पर होते.

टॅग्स :भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)महाराष्ट्रबिहार
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