राज्य में चुनाव का माहौल पूरे जोर पर है। हर नेता हर तरह की बातें कह रहा है, लेकिन राज्य में गहराते जल संकट की ओर किसी का ध्यान नहीं है। उसे मुद्दा भी बनाने के लिए कोई तैयार नहीं है। शायद पानी समस्या राजनीति में प्राकृतिक मानी जाती है, जिसके चलते उस पर कोई अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझता है। खबरें बता रही हैं कि इन दिनों मुंबई को छोड़कर महाराष्ट्र राज्य में पीने के पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है।
खराब मानसून के कारण पहले से ही जलसंग्रह कम था, भीषण गर्मी के चलते राज्य में विभिन्न बांधों के जल स्तर में भारी कमी आई है। अब नौबत यह है कि मई के पहले सप्ताह में राज्य में जल भंडारण गिरकर 28 फीसदी रह गया। पिछले साल इसी समय बांधों की स्थिति 40.28 प्रतिशत तक थी। यूं देखा जाए तो महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और विदर्भ हमेशा से सूखे की मार झेलते आए, लेकिन जब बात पेयजल संकट पर आ पहुंचती है तो चिंता के बादल अधिक गहराने लगते हैं।
छत्रपति संभाजीनगर संभाग के बांधों में पिछले साल 46.79 फीसदी जल भंडारण था, जो अब महज 11.89 फीसदी रह गया है। छत्रपति संभाजीनगर जिले के पैठण स्थित 102 टीएमसी क्षमता वाले जायकवाड़ी बांध का जलस्तर सिर्फ 7.97 फीसदी रह गया है, जिसके बाद मृत जल के उपयोग की स्थितियां बनेंगी। मगर हालात को देखकर यह माना जा रहा है कि जल संकट तभी दूर होगा जब बरसात समय पर होगी, जिसका निर्धारित समय जून माह है। अन्यथा स्थितियां और गंभीर हो जाएंगी।
महाराष्ट्र में आम तौर पर नासिक, पुणे, सोलापुर और कोल्हापुर जैसे क्षेत्र जल संकट से बचे रहते हैं। किंतु इस साल उन क्षेत्रों में भी पानी की दिक्कत को महसूस किया जा रहा है। नासिक के बांधों में केवल 30.65 प्रतिशत और पुणे में 23.69 प्रतिशत पानी बचा है। यदि पूरे राज्य की स्थिति को देखा जाए तो वर्तमान में 2952 टैंकरों के माध्यम से 2344 गांवों और 5749 बस्तियों में पानी की आपूर्ति की जा रही है, जो आने वाले समय में गंभीर जल संकट का संकेत दे रही है।
पहले ग्रामीण भागों में जल संकट स्थाई माना जाता था। अब शहरी भागों में भी स्थितियां ग्रामीण क्षेत्रों की तरह होती जा रही हैं। बेंगलुरू के जल संकट की बात चलते-चलते पुणे भी उसी कतार में बढ़ता दिख रहा है। शहरों पर बढ़ता जनसंख्या का दबाव और संसाधनों के विकास की उपेक्षा पानी-बिजली जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की वजह है, जिसे सरकारें केवल प्राथमिकता के आधार पर हल करने में दिलचस्पी नहीं दिखाती हैं। इसलिए हर हाल में आसमान पर निगाहें रखना आम आदमी की मजबूरी और जरूरत है। ‘जल है तो कल है’ के नारे को बुलंद तो रखा जाता है, लेकिन कल तो सबको नजर आता है, जल का अता-पता बहुत सारे लोगों को नहीं रहता है।