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ब्लॉग: इसीलिए चाचा ने खाने पर बुलाया है...!!

By Amitabh Shrivastava | Updated: March 2, 2024 10:18 IST

यदि इस पृष्ठभूमि में आगामी चुनावों के लिए भी गणित तय हो जाए तो बुराई किस बात की। ऐसे में खाने का प्रस्ताव सबसे आसान ही कहा जा सकता है, क्योंकि भाजपा नेताओं को चाय पर तो बुलाया नहीं जा सकता।

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पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का भारतीय जनता पार्टी में शामिल होना, उसके बाद एक सर्वे में राज्य के महागठबंधन को 45 सीटें मिलती दिखाना, फिर यवतमाल की सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शरद पवार को निशाने पर न लेना और सबसे ताजा घटनाक्रम में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) के प्रमुख शरद पवार का मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और अजीत पवार को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करना केवल एक संयोग नहीं माना जा सकता है।

वह भी उस समय, जब पवार के मुंबई स्थित निवास स्थान पर महाविकास आघाड़ी की लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे की बैठक हुई हो। साफ है कि राज्य के राजनीतिक दलों के बीच जो खिचड़ी पक रही है, वह लोकसभा चुनाव को अपेक्षा से अलग दिशा में ले जाती दिख रही है।

यदि सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे की टोपी उछालने वाले एक टेबल पर बैठकर खाना खाएंगे तो साफ है कि नतीजे कुछ अलग ही नजर आएंगे। पहले मिलिंद देवड़ा, फिर बाबा सिद्दीकी और उसके बाद अशोक चव्हाण का कांग्रेस छोड़ना कोई सीधी कहानी बयां नहीं करता है।

इससे यह भी साबित नहीं होता है कि वे अपनी पार्टी के अंदर बेचैन थे और उन्हें भविष्य में किनारे किए जाने का डर सता रहा था। इन सभी की राजनीतिक पृष्ठभूमि मजबूत थी और आगे भी बनी रह सकती थी। मगर इन्हें दल-बदल से एक आरामदायक जगह मिल गई है, जहां सत्ता और सत्ताधारियों का सहारा है।

कुछ यही बात अजीत पवार के लिए भी लागू हो सकती है। वह भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) में कभी किनारे पर नहीं रहे। उन्हें हर अवसर पर प्रमुखता मिली। यहां तक कि जब शरद पवार ने इस्तीफे का ऐलान किया, उस समय भी वह पार्टी कार्यकर्ताओं को संभालने में आगे थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि पार्टी तोड़ने की नौबत आ गई। यहां तक कि विभाजन में वे सभी नेता साथ आ गए जो राजनीति में शरद पवार को अपना ‘गॉडफादर’ मानते हैं। इससे सिद्ध होता है कि कहीं न कहीं नेपथ्य में मौन सहमति से राजनीति के आसान समीकरण तैयार हो रहे थे।

दूसरी तरफ विपक्षी महाविकास आघाड़ी गुरुवार को बैठक कर राज्य की 48 लोकसभा सीटों का बंटवारा तय कर चुकी है। जिसके तहत शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) 20, कांग्रेस 18 और राकांपा (शरद पवार गुट) 10 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। साथ ही आघाड़ी 2 सीटें वंचित बहुजन आघाड़ी और एक सीट राजू शेट्टी को देगी।

हालांकि बंटवारे के पहले वंचित बहुजन आघाड़ी 27 सीटें लड़ने की मांग रख चुकी है। उसने वर्ष 2019 में 47 सीटों पर चुनाव लड़ा था। ताजा साझेदारी में वह दो सीटों पर समझौता कैसे करेगी, यह समझना मुश्किल है। इसी प्रकार राकांपा का नौ सीटें लड़ने का फैसला पार्टी के निचले स्तर पर कितना पसंद आएगा, यह समय ही बताएगा. यही बात शिवसेना (उद्धव गुट) के लिए भी लागू होगी। दरअसल इन दिनों में विभाजन के बाद से अनेक नेता स्वाभिमान और निष्ठा के नाम पर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। जिसके पीछे एक बड़ी वजह विभाजन से पार्टी के प्रति उभरी एक सहानुभूति है। इसलिए सीटों का तालमेल कागजों पर बन जाएगा, लेकिन जमीन पर प्रभावी बनना आसान नहीं होगा।

गठबंधन के हर दल को अपना भविष्य अपने हाथ में ही रखना होगा। यद्यपि वंचित बहुजन आघाड़ी दो सीटों पर संतुष्ट हुई ( जिसकी संभावना बहुत कम है) तो रास्ता आसान हो जाएगा। वर्ना अलग होने से मुश्किलें अधिक बढ़ जाएंगी। विपक्ष के बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच ही महागठबंधन के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे कुछ स्थानों पर नूरा कुश्ती की भी तैयारी कर अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए कुछ सीटें दूसरों के लिए भी आसान बना सकते हैं। इसीलिए उसे विपक्ष के नेताओं पर भी डोरे डालने में कोई संकोच नहीं है।

महानवनिर्माण सेना हो या फिर वंचित बहुजन आघाड़ी, वह हर दरवाजे पर दस्तक देने की तैयारी में है। इसी माहौल में जब महागठबंधन के नेताओं को शरद पवार के बारामती निवास गोविंदबाग में खाने पर न्यौता मिलता है तो उससे अच्छी क्या बात हो सकती है। हालांकि सार्वजनिक स्तर पर गलत संदेश जाने से रोकने के लिए उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अत्यधिक व्यस्त कार्यक्रम के चलते पवार के न्यौते पर जाने में असमर्थता जता दी है और फिर किसी दिन उनके घर जाने का इरादा भी बता दिया है।

किंतु बात यहां तक बढ़ने के मायने सीधे नहीं हैं। वह भी तब जब फडणवीस अनेक सार्वजनिक मंचों से यह कह रहे हैं कि महाराष्ट्र में सुबह-सुबह बनी सरकार शरद पवार की सहमति से ही बनी थी, जिसका प्रति उत्तर पवार ने अभी तक नहीं दिया है। फिलहाल राकांपा (शरदचंद्र पवार) के खेमे में ननद-भौजाई के आमने-सामने आने को लेकर खासी चिंता बन रही है।

राकांपा (अजीत पवार) की ओर से स्वयं अजीत पवार ही मोर्चा संभालते हुए जवाब दे रहे हैं। कुछ हद तक खाने पर बुलाने की राजनीति को उससे भी जोड़कर देखा जा रहा है, किंतु पवार परिवार को मिलने-जुलने के अवसर अनेक आते हैं। उसे केवल अजीत पवार की पत्नी सुनेत्रा पवार के चुनाव लड़ने को लेकर घमासान से जोड़ा नहीं जा सकता है। समूचा गणित लोकसभा चुनाव से लेकर विधानसभा चुनावों तक है।

महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार ने कभी-भी किसी दल से अस्पृश्यता की नीति न रखी और न कभी किसी को जानी दुश्मन बनाया। इसलिए वह अनेक बार मिली-जुली सरकारों के आधार स्तंभ रहे। यदि इस पृष्ठभूमि में आगामी चुनावों के लिए भी गणित तय हो जाए तो बुराई किस बात की। ऐसे में खाने का प्रस्ताव सबसे आसान ही कहा जा सकता है, क्योंकि भाजपा नेताओं को चाय पर तो बुलाया नहीं जा सकता।

टॅग्स :शरद पवारएकनाथ शिंदेदेवेंद्र फड़नवीसमहाराष्ट्र
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