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राजेश बादल का ब्लॉग: कभी न पूरे होने वाले वादे क्यों करते हैं नेता?

By राजेश बादल | Updated: October 4, 2023 09:57 IST

चुनाव के दिनों में तो यह और भी विकराल तथा विकृत स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित है. चुनाव से पहले राजनेताओं को पता होता है कि वे जो लालच दे रहे हैं या जो वादे जनता के साथ कर रहे हैं, वे कभी पूरे नहीं होंगे.

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ठळक मुद्देभारतीय लोकतंत्र परिपक्व और समझदार हो रहा है. इसे नहीं मानने का कोई कारण नहीं है.साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने के साथ-साथ आम मतदाता भी सोच के स्तर पर जागरूक हो रहा है. यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए. फिर भी इस जम्हूरियत के साथ कुछ विरोधाभास चिपके हुए हैं.

भारतीय लोकतंत्र परिपक्व और समझदार हो रहा है. इसे नहीं मानने का कोई कारण नहीं है. साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने के साथ-साथ आम मतदाता भी सोच के स्तर पर जागरूक हो रहा है. यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए. फिर भी इस जम्हूरियत के साथ कुछ विरोधाभास चिपके हुए हैं. विरोधाभासों का यह गुच्छा सुलझने के बजाय उलझता ही जा रहा है. यह भारतीय लोकतंत्र में न तो लोक के लिए बेहतर है और न ही तंत्र के लिए. 

चुनाव के दिनों में तो यह और भी विकराल तथा विकृत स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित है. चुनाव से पहले राजनेताओं को पता होता है कि वे जो लालच दे रहे हैं या जो वादे जनता के साथ कर रहे हैं, वे कभी पूरे नहीं होंगे. दूसरी ओर मतदाता भी अब इतना मासूम और भोला नहीं रहा. वह समझता है कि उम्मीदवार, मंत्री और मुख्यमंत्री जो वचन दे रहे हैं या घोषणाएं कर रहे हैं, उनमें से एक प्रतिशत भी पूरी होने वाली नहीं हैं. पर वह क्या करे? 

दोनों पक्ष हकीकत जानते हुए भी इस व्यवस्था को चलने दे रहे हैं. इस बिंदु पर आकर लोकतांत्रिक सेहत को नुकसान तो होना ही है. पांच प्रदेशों में इन दिनों विधानसभा चुनाव सिर पर हैं. कभी भी निर्वाचन आयोग तारीखों की घोषणा कर सकता है. इसके बाद आचार संहिता के चलते सरकारी योजनाओं के तहत नए निर्माण, ठेकों, अनुदान और उनके क्रियान्वयन पर विराम लग जाएगा. 

पांच में से दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं, मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति सत्ता में है और मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की हुकूमत है. चुनाव जीतने और अपनी सरकार बचाए रखने के लिए ये दल एड़ीचोटी का जोर लगा रहे हैं. इस होड़ में वे ऐसे-ऐसे वादों को मतदाताओं के सामने रख रहे हैं, जो सिर्फ हवा हवाई हैं. वे कभी भी पूरे नहीं किए जा सकते. 

यदि उसी दल की सरकार दुबारा बन जाए तो भी ये राजनेता अपने वादे पूरे नहीं कर सकते. संविधान की शपथ लेकर सरकार चलाने वाले मंत्री और मुख्यमंत्री शायद भूल जाते हैं कि वे पद पर रहते हुए आखिरी पल तक शपथ से बंधे होते हैं. वे जो भी घोषणा करते हैं, उसे पूरा करना उनका संवैधानिक दायित्व है. यदि वे ऐसा नहीं करते तो यकीनन यह संवैधानिक विश्वासघात की श्रेणी में आता है. 

कुछ समय पहले एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि चुनाव पूर्व घोषणाओं में बमुश्किल चार या पांच फीसदी पर अमल हो पाता है. बाकी सब ठंडे बस्ते में चली जाती हैं.यहां एक पेंच को भी समझना आवश्यक है. चुनाव से कुछ महीने पहले जो वादे किए जाते हैं, घोषणाओं की झड़ी लगाई जाती है, उसमें से नब्बे फीसदी बजट में पास नहीं कराए जाते और न ही बजट का हिस्सा होते हैं. 

चुनाव के साल में जो बजट पारित किया जाता है, उसे चुनावी या लोकलुभावन बजट इसीलिए तो कहते थे. राजनीतिक दल अपनी सरकारों को निर्देश देते थे कि चुनावी साल के मद्देनजर मतदाताओं को पसंद आने वाली योजनाओं पर धन आवंटन कर दिया जाए. चुनाव आते-आते वह निर्धारित धन खर्च कर दिया जाता था. नियम तो यह कहता है कि किसी प्रदेश का वित्त विभाग वही धन जारी कर सकता है, जो विधानसभा में पारित बजट का हिस्सा हो. चाहे वह कैसे भी खर्च करने के लिए हो. मगर, देखा गया है कि विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री अपनी ओर से रैलियों में या सभाओं में अपने इलाके की किसी भी समस्या का निदान करने का ऐलान कर देते हैं. चुनाव के बाद हार गए तो कोई स्पष्टीकरण नहीं मांगता. पार्टी जीत गई तो फिर वह वादा जब तक बजट का हिस्सा नहीं बनता, पूरा नहीं हो पाता. 

इसके अलावा यह भी देखा गया है कि आपात स्थितियों में भी यदि सरकार पैसा खर्च करना चाहे तो उसकी निर्धारित प्रक्रिया होती है. घोषणा से पहले मंत्रिमंडल की मंजूरी अनिवार्य है. मंत्रिमंडल की औपचारिक मंजूरी के बाद इसका गजट नोटिफिकेशन होता है. उसके बाद ही वित्त विभाग धन जारी कर सकता है. पर यह भी नहीं होता.

हाल के दिनों में हमने यह भी देखा है कि निर्धारित प्रक्रिया और राजकोष में जमा खजाने की समीक्षा किए बिना ही अनेक प्रदेश जनता को लुभाने के लिए अनाप-शनाप पैसा खर्च करने लगते हैं. इसके लिए भी वे हर महीने ऋण भी लिया करते हैं. मध्यप्रदेश में अनेक योजनाएं क्रियान्वित नहीं हो पा रहीं क्योंकि विभागों के पास पैसा ही नहीं है. वेतन बांटने के लिए सरकार प्रत्येक माह लगभग तीन से पांच हजार करोड़ रु कर्ज लेती है. 

कर्ज लेने की यह प्रवृत्ति विकास की प्राथमिकताओं को प्रभावित करती है. विडंबना है कि चुनाव के बाद जो भी पार्टी सरकार बनाती है, वह कर्ज के जाल में बुरी तरह फंस चुकी होती है. कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज लेना पड़ जाए तो उसे आप क्या कहेंगे? सियासत में बढ़ती अनैतिकता आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरनाक संकेत दे रही है. चुनाव आयोग इसमें चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता.

सवाल यह है कि इस बीमारी का इलाज क्या है. हिंदी के विद्वान चिंतक और विचारक राजेंद्र माथुर कहते थे कि भारत में जब तक उपभोक्ता संस्कृति के साथ-साथ मतदाता संस्कृति नहीं पनपती, तब तक चुनाव प्रक्रिया में दाखिल इन कुरीतियों का समाधान नहीं मिल सकता. 

मतदाता संस्कृति से उनका आशय यही था कि हर गांव, कस्बे और शहर के मतदाता अपने क्षेत्र के नेताओं की चुनावी घोषणाओं का दस्तावेजीकरण करें और उनके जीतने पर इलाके के बाहर एक बड़े बोर्ड में उन्हें लिख दिया जाए. जब नेताजी आएं तो उन्हें वह बोर्ड दिखाया जाए और जब उन वादों पर अमल हो जाए, तभी उनकी बात सुनी जाए और उन्हें नई घोषणा करने दी जाए. संभवतया इससे कुछ समाधान मिल सके.

टॅग्स :भारतचुनाव आयोग
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