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जन नेता बनाम मुख्यमंत्री, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Updated: April 15, 2021 18:23 IST

नरेंद्र मोदी को अपने भाषणों में यह कहने का मौका मिला कि टीएमसी का मतलब है ‘ट्रांसफर माई कमीशन’.

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ठळक मुद्देलोकप्रिय और जुझारू जननेता के रूप में उनका कोई सानी नहीं है. बंगाल के रण में जिसकी विजय होगी, वह बंगाल ही नहीं अगले दो-ढाई साल तक राष्ट्रीय राजनीति पर अपना सिक्का जमाए रहेगा.ममता के पास भाजपा विरोधी राष्ट्रीय मोर्चे का केंद्र बन जाने की नैतिक और व्यावहारिक हैसियत आ जाएगी.

नतीजा चाहे जो भी हो, बंगाल का चुनाव राजनेताओं को कई सबक देने वाला होगा. अगर ममता हारती हैं तो पिछले पांच साल में उनके द्वारा मुख्यमंत्री के तौर पर की गई भीषण गलतियां और उभरकर सामने आ जाएंगी.

ये गलतियां मुख्य तौर पर तीन हैं- पहली, 2018 के पंचायत चुनाव को हिंसा और बेईमानी के जरिये जीतना. इसका नतीजा यह निकला कि निचले और मंझोले स्तर पर तृणमूल विरोधी राजनीतिक शक्तियों (कांग्रेस और माकपा) के साथ जुड़ी हुई पब्लिक कोई चारा न देखकर एक मजबूत पार्टी की तलाश में भाजपा की तरफ चली गई.

2019 में भाजपा को मिले चालीस फीसदी वोट इसी प्रक्रिया का नतीजा थे. दूसरी, मुसलमान वोटों को लुभाने के लिए ममता द्वारा इस्लामिक तत्वों को अपनी ओर खींचने की खुली कोशिशें. इसके कारण भाजपा को प्रतिक्रियास्वरूप हिंदू ध्रुवीकरण करने में कामयाबी मिली. तीसरी, चक्रवात अम्फान के बाद राहत कार्यो में हो रहे भ्रष्टाचार की तरफ से आंखें बंद कर लेना.

इसके कारण नरेंद्र मोदी को अपने भाषणों में यह कहने का मौका मिला कि टीएमसी का मतलब है ‘ट्रांसफर माई कमीशन’. अगर ममता जीतीं तो सबक यह होगा कि एक जननेता के तौर पर भाजपा जैसी पार्टी को हराने के लिए किस किस्म की दृढ़ता और पराक्रम की आवश्यकता होती है.

मुख्यमंत्री के रूप में ममता की कई आलोचनाएं हो सकती हैं, लेकिन एक लोकप्रिय और जुझारू जननेता के रूप में उनका कोई सानी नहीं है. मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि बंगाल के रण में जिसकी विजय होगी, वह बंगाल ही नहीं अगले दो-ढाई साल तक राष्ट्रीय राजनीति पर अपना सिक्का जमाए रहेगा.

अगर भाजपा जीतेगी, तो मैं पहले ही कह चुका हूं कि केंद्र सरकार के तीनों संकटों (किसान आंदोलन के कारण पैदा हुआ राजनीतिक संकट, चीन के साथ सीमा विवाद के कारण तीखा हुआ विदेश नीति का संकट और कोविड के कारण लाइलाज हुआ आर्थिक संकट) का प्रबंधन करने की उसकी क्षमता में जबरदस्त बढ़ोतरी हो जाएगी.

लेकिन, अगर भाजपा नहीं जीत पाई और ममता बनर्जी ने तिबारा सरकार बना ली तो सारे देश में उनका यह कथन गूंजने लगेगा कि एक पैर से मैं बंगाल जीतूंगी, और दो पैरों से दिल्ली.’ यानी, ममता के पास भाजपा विरोधी राष्ट्रीय मोर्चे का केंद्र बन जाने की नैतिक और व्यावहारिक हैसियत आ जाएगी.

विधानसभा का संघर्ष खत्म हो चुका होगा, जिसके कारण कांग्रेस और मार्क्‍सवादियों को भी ममता के साथ एक मंच पर खड़े होने में कोई दिक्कत नहीं होगी. बंगाल में जीत-हार का एक और उल्लेखनीय फलितार्थ होगा. वह है मुसलमानों की चुनावी राजनीति के भविष्य का. बंगाल में तीस फीसदी मुसलमान हैं. ऐसा लगता है कि वे ममता को वोट देने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

अगर इतने बड़े मतदाता मंडल का समर्थन भी भाजपा को हराने के लिए काफी नहीं साबित हुआ तो मुसलमान राजनीति का जुलूस स्थायी रूप से निकल जाएगा. लेकिन, सवाल यह है कि जीतेगा कौन? बंगाल के चुनाव पर निगाह रखने वाले राजनीतिक पंडितों की मुख्य उलझन यह है कि इस बार वहां ‘केमिस्ट्री’ चलेगी या ‘मैथमेटिक्स.’

आम तौर पर भाजपा का लोकसभाई प्रतिशत विधानसभा चुनावों में छह से पंद्रह फीसदी तक गिरता रहा है. अभी तक हुए सर्वेक्षणों की मानें तो गठजोड़ अपने लोकसभा के प्रदर्शन को छह से सात फीसदी के बीच सुधारने की तरफ जा रहा है. मुसलमान प्रधान निर्वाचन क्षेत्रों में ओपीनियन पोल के आंकड़े बता रहे हैं कि इन क्षेत्रों के मुसलमान रणनीतिक वोटिंग पर कमर कसे हुए हैं.

यानी, वे गठजोड़ को वहीं वोट देंगे जहां उसका उम्मीदवार जीतने की स्थिति में दिखाई पड़ेगा. वरना, अल्पसंख्यकों के ज्यादातर वोट ममता की झोली में गिरते नजर आ रहे हैं. अगर भाजपा मैथमेटिक्स की लड़ाई नहीं जीत पाई तो वह क्या करेगी? उस सूरत में भाजपा यह उम्मीद रख सकती है कि अंकगणित न सही, पर चुनाव की केमिस्ट्री उसके पक्ष में जाएगी.

ऐसी केमिस्ट्री भाजपा को तभी मिल सकती है जब ममता के खिलाफ जबरदस्त एंटीइनकम्बेंसी की लहर चल रही हो. कहना न होगा कि दस साल के शासन के बाद हर पार्टी को कुछ न कुछ सरकार विरोधी भावनाओं का सामना करना पड़ता ही है. ममता को इस बात का एहसास है. इसीलिए वे चुनावी केमिस्ट्री को भाजपा के पक्ष में न जाने देने के लिए हर तरह की युक्ति अपना रही हैं.

वे पहले से ही स्त्री-वोटों की महबूब रहनुमा हैं. बंगाल के भद्रलोक ने अभी तक उनका साथ नहीं छोड़ा है. भाजपा के असाधारण उभार ने प्रतिक्रियास्वरूप उनके अल्पसंख्यक वोटों को और पक्का कर दिया है, और ‘बाहरी-भीतरी’ की मुहिम के जरिये वे चुनाव को एक तरह का बंगालीवाद का तड़का भी लगा रही हैं. अंकगणित पर तो उनकी पकड़ इस समय तक है ही, अगर चुनाव के रसायनशास्त्र को थोड़ा बहुत भी प्रभावित कर पाईं  तो उनकी हैट्रिक पक्की हो जाएगी.

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