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विजय दर्डा का ब्लॉग: रॉ चीफ और सेना अध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवणे की नेपाल यात्रा के मायने

By विजय दर्डा | Published: November 01, 2020 2:31 PM

चीन की गोद में बैठे नेपाल को भारतीय खेमे में वापस लाना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है लेकिन सफलता की उम्मीद भी जग रही है. चीनी साम्राज्यवाद के खतरे का अंदाजा नेपाल के लोगों को भी हो रहा है और विरोध के स्वर उठने लगे हैं. भारत के लिए यही मौका है जब वह नेपाल को गले लगाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़े.

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ऐसा लगने लगा था कि नेपाल ने हमारा साथ छोड़ दिया है लेकिन पिछले पखवाड़े भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ (रॉ) के चीफ सामंत कुमार गोयल और नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली के बीच अकेले में मुलाकात हुई. इसके बाद ओली ने विजयादशमी के अवसर पर नेपाल का पुराना नक्शा ट्वीट कर देशवासियों को शुभकामनाएं दीं. ओली के तेवर और नेपाल के रुख में यह बड़ा बदलाव है क्योंकि  भारत और नेपाल के बीच विवाद का सबसे बड़ा कारण चीन की शह पर बना नेपाल का नया नक्शा था जिसकी तरफदारी ओली खुद कर रहे थे और नेपाली संसद ने उसे पास भी किया था

. उस नक्शे में भारतीय क्षेत्र लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा को नेपाल का हिस्सा बताया गया था. स्वाभाविक तौर पर भारत ने उसे खारिज कर दिया था. चीन के प्रभाव में आने से पहले ओली भारत के समर्थक हुआ करते थे. इसलिए भारत के प्रयासों से उनका रुख पलट सकता है. यह उन्हें भी पता है कि चीन ने जिन देशों में भी पैठ बनाई है, उसके संसाधनों पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया है.

नेपाल का दौरा करेंगे सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे

रॉ चीफ ने उन्हें क्या सलाह दी यह तो पता करना मुश्किल है लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ बातें तो उनकी समझ में जरूर आई हैं. हालांकि नेपाल में चीन समर्थक राजनीतिक वर्ग इस मुलाकात के लिए उनकी आलोचना कर रहा है. वैसे कहा तो यह भी जा रहा है कि रॉ चीफ ने इस यात्र के दौरान नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल, माधव कुमार और नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा से भी मुलाकात की लेकिन ये नेता कह रहे हैं कि मुलाकात नहीं हुई. जो भी हो, रॉ चीफ की मुलाकात के मायने तो कुछ न कुछ होंगे ही!

बहरहाल, नेपाल और भारत के बीच संबंधों के विश्लेषण से पहले एक जानकारी पर और गौर करिए. भारतीय मनोज मुकुंद नरवणे 4 से 6 नवंबर तक नेपाल का दौरा करने जा रहे हैं. सवाल उठना लाजिमी है कि उनकी यात्र का उद्देश्य क्या है? दरअसल 1950 से भारत और नेपाल के बीच यह परंपरा चली आ रही है कि दोनों देश एक दूसरे के सेना अध्यक्ष को ‘जनरल’ की उपाधि देते हैं. इसी के तहत नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ‘जनरल ऑफ द नेपाल आर्मी’ की उपाधि से भारतीय सेना अध्यक्ष को सम्मानित करेंगी. यह निश्चित ही महत्वपूर्ण बात है क्योंकि इसके पहले ओली 1950 के शांति समझौते की भी आलोचना कर रहे थे. जनरल नरवणो को उपाधि मिलने का मतलब होगा कि नेपाल पुरानी परंपरा को कायम रख रहा है. इसके साथ ही इस यात्र के दौरान जनरल नरवणो नेपाल के सेना प्रमुख जनरल पूर्ण चंद्र थापा और अन्य शीर्ष सैन्य अधिकारियों से बातचीत करेंगे.

चीन के कहने पर ओली का रवैया भारत के खिलाफ हुआ था सख्त

जाहिर सी बात है कि रॉ चीफ के बाद भारतीय सेना अध्यक्ष नरवणो की यात्र से चीन को झटका लगने वाला है. भारत और नेपाल के बीच करीब 1800 किमी लंबी सीमा है और भारत को घेरने के लिए ही चीन ने नेपाल को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू किया है. चीन के कहने पर ही ओली का रवैया भारत के खिलाफ सख्त होता गया. इधर चीन ने नेपाल की तिब्बत की सीमा से लगे कई गांवों पर जब कब्जा कर लिया तो नेपाल के आम लोगों ने और वहां के मीडिया ने इस पर आपत्ति जतानी शुरू कर दी. संभव है कि इन विरोधों के बाद ओली के चीन प्रेम में कमी आई हो और ऐसे समय में भारत की ओर से हो रही पहल ओली को भारत प्रेम की पुरानी राह पर ला सकती है.भारत और नेपाल का संबंध वाकई बहुत पुराना है.

यहां तक कि नेपाल के ज्यादातर प्रधानमंत्री भारत में पढ़े लिखे. किसी की पढ़ाई  दिल्ली में हुई तो किसी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में या फिर कोलकाता में पढ़ाई की. राज्यसभा सदस्य बनने के बाद मैं दिल्ली के 7, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड स्थित बंगले में पहले एक साल रहा. वहां कभी सांसद के रूप में प्रख्यात समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया रहा करते थे. उन्हीं के साथ गिरिजा प्रसाद कोइराला भी रहते थे जो बाद में नेपाल के प्रधानमंत्री बने. जब कोइराला जी प्रधानमंत्री के रूप में भारत आए तो मुलाकात के दौरान मैंने बंगले का जिक्र किया. उन्होंने उन दिनों को प्रसन्नता के साथ याद किया. कहने का आशय यह है कि नेपाल और भारत के संबंध बहुत गहरे रहे हैं.

भारत का विकल्प कभी नहीं हो सकता चीन

मौजूदा प्रधानमंत्री ओली और नेपाल के दूसरे नेताओं को भी पता है कि भारत का विकल्प कभी चीन हो ही नहीं सकता है. भारत कभी दूसरे राष्ट्र की संप्रभुता को क्षति नहीं पहुंचाता जबकि चीन विस्तारवादी रवैये के लिए जाना जाता है. दूसरी बात यह है कि भारत और नेपाल धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से इतने घुले-मिले हैं कि दोनों देशों को अलग करके देखा ही नहीं जा सकता. दोनों देशों में रोटी और बेटी का संबंध है. इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ माइग्रेशन  की 2019 की रिपोर्ट कहती है कि नेपाल के 30 से 40 लाख लोग भारत में रहते हैं जबकि 5 से 7 लाख भारतीय नेपाल में रहते हैं. भारत की सुरक्षा व्यवस्था में नेपाल के बहादुर गोरखाओं का अमर योगदान रहा है. जनरल मानेक शॉ ने एक बार कहा था कि ‘यदि कोई कहता है कि वह मरने से नहीं डरता तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा है.’

वाकई गोरखा लोग बहादुरी की मिसाल हैं. निश्चित रूप से नेपाल हमारा अपना भाई है और उसे चीन की चालबाजियों से बचाना हमारा दायित्व है. 2015 की अघोषित आर्थिक नाकेबंदी जैसी गलतियां हमसे भी हुई हैं लेकिन अब वक्त है कि इतिहास की गलतियों को परे रखकर दोनों देश खुले मन से आगे बढ़ें और एक दूसरे के गले लगें. भारत बड़ा है, उसे बड़ा दायित्व निभाना चाहिए. नेपाल के गिले-शिकवे दूर करना चाहिए और चीन को बता देना चाहिए कि नेपाल हमेशा भारत का भाई रहा है, दोस्त रहा है और रहेगा. 

टॅग्स :नेपालमनोज मुकुंद नरवणेचीन
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