केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बर्ताव में संवैधानिक मर्यादा और आत्म-स्वातंत्र्य का अद्भुत समागम हुआ है. राज्यपाल के नाते उन्होंने विधानसभा में वही भाषण पढ़ दिया, जो मुख्यमंत्नी ने उन्हें लिखकर भिजवाया था. लेकिन उन्होंने साथ-साथ यह भी कह दिया कि वे इसे पढ़ तो रहे हैं लेकिन इसकी बात से वे सहमत नहीं हैं. क्या बात है, जिससे वे सहमत नहीं हैं? वह है नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर का विरोध!
केरल की वामपंथी सरकार तथा विपक्षी कांग्रेस ने संसद द्वारा पारित इस कानून के विरोध में मोर्चा खोल रखा है. केरल विधानसभा ने इस कानून के विरोध में प्रस्ताव तो पारित किया ही है, सर्वोच्च न्यायालय में एक मुकदमा भी दर्ज करा दिया है. इस मुकदमे की औपचारिक अनुमति तो राज्यपाल से क्या ली जाती, राज्य सरकार ने उनको सूचित तक नहीं किया.
इसके अलावा उनके विरुद्ध इतिहास-कांग्रेस के अधिवेशन में भी अशिष्टता की गई. केरल के राजभवन के सामने कई प्रदर्शन किए गए लेकिन राज्यपाल ने उनकी निंदा करने के बजाय उन्हें चाय पर निमंत्रित करके बात करने की इच्छा भी प्रकट की.
आरिफ खान साधारण राजनेता नहीं हैं. वे विचारशील राजनेता हैं. शाहबानो के मामले में उन्होंने इतिहास बनाया है. वे कई बार केंद्र में मंत्नी रहे हैं. यह जरूरी नहीं है कि आप उनके विचारों से सहमत ही हों लेकिन उनमें यह साहस है कि वे अपने विचार खुलकर प्रकट करते हैं और उन पर खुली बहस के लिए तैयार रहते हैं.
पं. बंगाल का हाल तो बहुत बुरा है. वहां के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ पं. बंगाल की सरकार और तृणमूल कांग्रेस जिस तरह का व्यवहार कर रही है, क्या उसे शोभनीय कहा जा सकता है? कोलकाता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में धनखड़ को मंच तक नहीं जाने दिया गया और केरल के विधायकों ने आरिफ खान के साथ जोर-जबर्दस्ती करने की कोशिश की, क्या इस अभद्र आचरण को सारा देश नहीं देख रहा है? राज्यपालों और राज्य सरकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने दृष्टिकोण पर कायम तो रहें लेकिन संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन न होने दें.