केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जब यह घोषणा की थी कि मार्च 2026 तक नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा तो यह भरोसा करने वाले कम लोग थे कि तय समय सीमा में नक्सलियों का सफाया हो जाएगा. मगर अब हर कोई भरोसा कर रहा है क्योंकि नक्सलवाद के बचे-खुचे इलाके भी सुरक्षाबलों के दायरे में आ चुके हैं. नक्सलियों के तमाम बड़े नेतृत्वकर्ता मारे जा चुके हैं और खुद नक्सली भी यह मान रहे हैं कि वे अपने इतिहास के सबसे दुर्दिन दौर से गुजर रहे हैं. इसीलिए नक्सलियों ने कहा भी है कि वे अब अपना तरीका बदलने जा रहे हैं. सवाल यह है कि उनका बदला हुआ तरीका क्या होगा?
क्या वे अब पूरी तरह शहरी नक्सलवाद की बात कर रहे हैं? यह संभव है क्योंकि शहरों में न केवल नक्सलियों के समर्थकों ने पैठ बना रखी है बल्कि यह शंका व्यक्त की जाती रही है कि घनघोर नक्सली भी अपनी वास्तविक पहचान छिपा कर शहरों में रह रहे हैं. उनकी सार्वजनिक पहचान ऐसी होती है, जिस पहचान को प्रतिष्ठित माना जाता है लेकिन हकीकत बिल्कुल विपरीत होती है.
कमाल की बात यह है कि इसी प्रतिष्ठित पहचान के आवरण के पीछे वे ऐसी हरकतें करते रहते हैं, जिन पर किसी का ध्यान सामान्य रूप से नहीं जाता है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का कहना है कि शहरी नक्सलवादियों को विदेश से फंडिंग मिल रही है और विदेश से मिले पैसे का उपयोग भारत के विकास में रोड़ा अटकाने के लिए किया जा रहा है.
फडणवीस ने यह बयान उस गढ़चिरोली में दिया है जिसके विकास को नक्सलवाद का ग्रहण लगा हुआ था. अब गढ़चिरोली तेजी से विकास की राह पर बढ़ेगा. आम तौर पर लोगों के दिमाग में यह बात आ सकती है कि ये शहरी नक्सली करते क्या हैं और किस तरह से नक्सलवाद को पालने में लगे हैं? दरअसल नक्सलवाद की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी से हुई.
चारु मजूमदार और कानू सान्याल को नक्सलवाद का प्रणेता माना जाता है. धीरे-धीरे इसका फैलाव बिहार, ओडिशा, मध्यप्रदेश से होते हुए तेलंगाना तक जा पहुंचा और नक्सलवाद का संबंध बाद में श्रीलंका के लिट्टे से जा मिला. उस दौर में भारत में एक लाल कॉरिडोर तैयार हो गया. जीवन के लिए संघर्ष कर रहे भोले-भाले आदिवासियों को नक्सलियों ने गुमराह किया और जंगलों में जंग की शुरुआत कर दी.
मगर नक्सलियों को पता था कि लड़ाई केवल जंगलों में रह कर नहीं जीती जा सकती इसलिए एक शहरी विंग तैयार हुआ. पढ़े-लिखे लोगों ने नेतृत्व संभाला और शैक्षणिक संस्थानों में जड़ें जमानी शुरू कर दीं. दुर्भाग्य से उस दौर की सरकारों ने नक्सलियों की इस चाल का कोई माकूल प्रतिउत्तर नहीं दिया. माना जाता है कि 80 के दशक में शहरी शैक्षणिक संस्थानों में नक्सलवाद पहुंचना शुरू हुआ.
वर्ष 2004 में तीन प्रमुख नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप तथा माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर और सीपीआई (एमएल) का विलय हुआ और सीपीआई (माओवादी) नाम का नया संगठन मैदान में आया. इस संगठन ने तीन स्तरों पर काम शुरू किया. इसमें युवाओं को पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) में भर्ती करना, देश के शहरी केंद्रों को घेरने के लिए जंगल और ग्रामीण इलाकों में अपना संगठन खड़ा करना और शहरों में भूमिगत कार्यकर्ताओं के माध्यम से फ्रंट तैयार करना. यह सर्वविदित है कि नक्सलियों के लिए चीनी साम्यवादी नेता माओ त्से तुंग का विचार ही सबकुछ है.
स्वाभाविक सी बात है कि नक्सलियों की मदद वही करेगा जो माओ त्से तुंग की विचारधारा का पोषक होगा. इसलिए यह धारणा पुख्ता होती गई कि चीन की ओर से नक्सलियों को मदद मिलती रही है. वैसे देश भी नक्सलियों की मदद करते रहे हैं जो भारत को हर हाल में कमजोर करना चाहते हैं.
मगर अब इस पर नकेल कसनी शुरू हो चुकी है. जंगलों से नक्सलियों का सफाया अंतिम चरण में है लेकिन सरकार को सचेत रहना होगा कि नक्सलवाद किसी और स्वरूप में न उभरे. इस नक्सलवाद ने भारत का बड़ा नुकसान किया है. जिन इलाकों में भी इनका प्रभुत्व रहा है, वो इलाके पिछड़ते चले गए.
अब उन क्षेत्रों में विकास की धारा बहनी चाहिए. सरकार को विकास की गुणवत्ता पर भी ध्यान रखना होगा ताकि विकास का फायदा आम आदिवासियों तक पहुंचे. उद्योगों का प्रतिफल आदिवासियों को विकसित करे तभी विकास की बात वास्तव में चरितार्थ होगी.