यह सच है कि समर्थ रामदास ने ‘पूर्वजों का गुणगान’ करने वाली संतानों को फटकार लगाई थी, लेकिन उनकी यह सीख उनके लिए थी जो स्वयं कुछ न करते हुए अपना पूरा जीवन पूर्वजों की कमाई और प्रतिष्ठा के बल पर जी रहे थे. हमारे पिताश्री ‘लोकमत’ के संस्थापक संपादक और वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी जवाहरलाल दर्डा जी ने हमारे लिए कभी यह विकल्प ही नहीं छोड़ा कि हम केवल उनके नाम या उपलब्धियों पर निर्भर रहें. उन्होंने हमें बड़े सपने देखने का हौसला दिया, उन सपनों को ऊंचाई दी. हमारी महत्वाकांक्षाओं को सही दिशा दी और सिखाया कि उन्हें पूरा करने के लिए संसाधन कैसे जुटाए जाएं.
हर वर्ष बाबूजी के जन्मदिन पर उनकी स्मृतियों की सुगंध मन को महका देती है और आंखें छलक उठती हैं. मुझे याद है, ‘लोकमत’ के शुरुआती संघर्ष के दिनों में बाबूजी ने हमें एक ही लक्ष्य दिया था और वह यह था कि हमारा समाचार पत्र गांव-गांव तक पहुंचना चाहिए. लेकिन उस लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते हमें स्वयं ही खोजने थे. हम यहां क्यों हैं? समाचारों के लिए. और समाचार किसके लिए हैं? पाठकों के लिए!
अगर आप चाहते हैं कि कोई आपका समाचार पत्र खरीदकर पढ़े, तो वह साफ-सुथरा, सलीके से सजा हुआ, पहली नजर में आकर्षक दिखने वाला होना चाहिए. उसकी छपाई बेदाग हो और कागज की गुणवत्ता भी बेहतरीन हो. गुणवत्ता को लेकर बाबूजी ने कभी समझौता नहीं किया. वह हमेशा कहते थे कि ‘लोकमत’ आम लोगों का समाचार पत्र है और यह उनका ही बना रहना चाहिए.
इसमें आम जनता के प्रश्नों, विचारों को जगह मिलनी ही चाहिए. कोई भी पार्टी, विचारधारा या किसी बड़े व्यक्ति के आशीर्वाद के भरोसे समाचार पत्र को जीवित नहीं रखा जा सकता. वह कहते थे, ‘पाठकों का विश्वास और समर्थन ही तुम्हारी सच्ची पूंजी है. इस बात को कभी मत भूलना.’ बाबूजी का स्पष्ट मानना था कि समाचार पत्र आम लोगों का होना चाहिए.
उसके मुद्दे आम लोगों से जुड़े हों और भाषा भी वही हो जो वे आसानी से समझ सकें. इसी दृष्टिकोण के साथ उन्होंने उस समय की पत्रकारिता पर लगे शहरी, संभ्रांत और उच्चवर्गीय ठप्पे को मिटाया.मैंने बाबूजी को अनेक संकटों का सामना करते और व्यक्तिगत आलोचनाएं सहते हुए देखा है. लेकिन उनकी जबान से किसी के लिए अपशब्द कभी नहीं निकले.
एक समाचार पत्र का मालिक होना किसी भी नेता के लिए बहुत बड़ा हथियार हो सकता है. लेकिन बाबूजी ने ‘लोकमत’ को कभी अपना हथियार नहीं बनाया. उन्होंने न तो इसका उपयोग अपनी छवि चमकाने के लिए किया और न ही कभी विरोधियों के चरित्रहनन के लिए इसे इस्तेमाल होने दिया. बाबूजी समय के बड़े पाबंद थे. मंत्री पद पर रहते हुए काम में कितने ही व्यस्त क्यों न रहे हों,
लेकिन परिवार के सदस्यों, बच्चों, बहुओं या पोतों-पोतियों के लिए उनके पास समय न हो, ऐसा कभी नहीं हुआ. वह अक्सर कहते थे, ‘जिस तरह आप पैसों का बजट बनाते हैं, व्यापार का हिसाब रखते हैं या शादी-ब्याह में खर्च की योजना बनाते हैं, उसी तरह समय का भी सटीक हिसाब होना चाहिए.’
सबसे अहम बात यह कि बाबूजी स्वयं भी वैसा ही आचरण करते थे. हर काम, हर व्यक्ति, हर जिम्मेदारी के लिए तय समय होता था और उनके समय का हिसाब शायद ही कभी चूका हो. राजनीति में सक्रिय रहते हुए, मंत्री पद संभालते हुए और पार्टी के कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी वे ‘लोकमत’ के कामकाज में बराबर भाग लेते थे.
और, इतना सब करते हुए भी उनके पास परिवार, मित्रों और परिचितों के लिए समय शेष रहता था. लेकिन बाबूजी की यह लगातार भागदौड़, दिन-रात चलने वाले दौरे, बैठकों की व्यस्तता हमारी माताजी को (हम उन्हें ‘बाई’ कहते थे) बिल्कुल भी स्वीकार नहीं था. कभी-कभी बाई का धैर्य जवाब दे जाता और फिर घर में बहस होती और आपस में बोलचाल बंद हो जाती थी.
बचपन का एक प्रसंग याद आया. यवतमाल का दर्डा उद्यान... मुझे वह दृश्य आज भी याद है. बंजर धरती पर लगाए गए पौधे धीरे-धीरे लहलहाने लगे थे. उस दिन बाबूजी यवतमाल में ठहरे हुए थे. सुबह से ही मुलाकातें और बैठकें चल रही थीं. घर लौटे तो दोपहर के तीन बज चुके थे. आते ही बाई से बोले, ‘आठ मेहमानों का खाना लगा दो.’ यही उनका स्वभाव था.
हमारी बाई तो मानो अन्नपूर्णा थीं. मेहमानों को प्रेम से खिलाना-पिलाना उनका स्वभाव था. लेकिन उस दिन वो थोड़ा खिन्न हो गईं. बाबूजी से बोलीं, ‘आपको इसमें क्या सुख मिलता है? हमेशा काम में डूबे रहते हैं, लोगों के कामों में लगे रहते हैं, अपने खाने-पीने की भी परवाह नहीं करते. थोड़ा भी आराम नहीं करते. ऐसा कब तक चलेगा? क्या आपको अपने शरीर की थोड़ी भी चिंता नहीं?’
उस रात का भोजन मौन रहते हुए किया गया. अगली सुबह दोनों बगीचे में आराम से बैठकर चाय पी रहे थे. मैं भी वहां पहुंच गया. रात की बात अब भी मेरे मन में ताजा थी. मैंने बाबूजी से पूछा, ‘आप ऐसा क्यों करते हैं, बाबूजी? बाई जो कहती हैं, उसमें क्या गलत है? आप लगातार परिश्रम करते हैं, आपको समय पर खाना नहीं मिलता, नींद पूरी नहीं होती, इसमें भला क्या सुख है?’
बाबूजी मुस्कुराते हुए बोले, ‘राजन, तुम्हारी दृष्टि में सुख क्या होता है? देर से उठना, आराम से भोजन करना और दोपहर को बिस्तर पर लेट जाना. क्या बस यही सुख है? जरा चारों तरफ देखो. जब हमने यह जमीन ली थी, तो यह बंजर थी. इसमें तो मिट्टी भी नहीं थी. फिर हमने मिट्टी मंगवाई. बाई ने इसमें पेड़-पौधे लगाए, मेहनत की.
अब जब ये पेड़ बड़े होते दिखते हैं, तो वही असली सुख है. सच्चा सुख तो परिश्रम की कोख से ही जन्म लेता है. यह बात कभी मत भूलना.’ वह दिन जब भी याद आता है, मेरी आंखें भर आती हैं. अब बाबूजी हमारे बीच नहीं हैं... लेकिन वह आज भी हम सभी के दिलों में जिंदा हैं.