केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नक्सलवाद के खात्मे का वक्त मार्च 2026 तय कर रखा है. अमित शाह की कार्यशैली ऐसी है कि अमूमन उनके वादे पर या निर्णय के क्रियान्वयन पर लोग भरोसा करते हैं. लेकिन उन्होंने जब नक्सलियों के खात्मे की घोषणा की थी तो शंका करने वालों की कोई कमी नहीं थी. यहां तक कि नक्सली नेताओं ने भी चुनौती दे दी थी लेकिन जब सरकारी मशीनरी, राज्यों की पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने अंतिम प्रहार शुरू किया तो परिणाम सामने आने लगे.
2024 तक, नौ राज्यों के 38 जिलों को नक्सल प्रभावित माना जाता था लेकिन अप्रैल 2025 में, अमित शाह ने देश को बताया कि अब केवल छत्तीसगढ़ में बीजापुर, कांकेर, नारायणपुर और सुकमा, झारखंड में पश्चिमी सिंहभूम और महाराष्ट्र में गढ़चिरोली में ही नक्सलवाद का ज्यादा प्रभाव बचा है. सोमवार का छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ में एक करोड़ रुपए का इनामी नक्सली मोडेन बालकृष्ण मारा गया. उसके दस साथी भी मारे गए जिनमें कई नाम प्रमुख थे.
गरियाबंद में मुठभेड़ का मतलब है कि छत्तीसगढ़ के दूसरे जिलों में भी नक्सलियों का वजूद अभी है. पिछले महीने ही धमतरी इलाके में बड़े पैमाने पर बम बरामद हुए थे. मगर इस बात में कोई संदेह नहीं कि सुरक्षा बलों ने नक्सलियों की नींद हराम कर रखी है. सरकारी मशीनरी और सुरक्षाबलों पर जंगल में बसे लोगों का भरोसा पुख्ता होता जा रहा है और यही कारण है कि नक्सलियों के जमावड़े के बारे में अब व्यापक पैमाने पर सूचनाएं मिल रही हैं और सुरक्षाबल तेजी से कार्रवाई कर पा रहे हैं. इसमें उन पुराने नक्सलियों की भी बड़ी भूमिका है जो पहले सरेंडर कर चुके हैं और जिन्हें विश्वास हो गया है कि विकास की धारा तब तक जंगलों में बसे गांवों तक नहीं पहुंच सकती जब तक कि नक्सलवाद समाप्त नहीं होगा.
पिछले कई दशकों से इन इलाकों में जंगलों पर नक्सलियों का कब्जा रहा है और वहां की जनता ने देखा है कि नक्सलियों के कारण उन्हें भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा है. सोशल मीडिया के कारण वे इस बात से वाकिफ हुए हैं कि देश तेजी से तरक्की कर रहा है लेकिन उन तक वो तरक्की नहीं पहुंच पाई है. तरक्की की कामना उनमें जगी है और वे चाहते हैं कि जंगल से नक्सलियों का सफाया होना चाहिए. इस बीच सरकारी मशीनरी ने उन लोगों पर भी नकेल कसी है जो किसी भी रूप में नक्सलियों की सहायता कर रहे थे.
नक्सलियों तक हथियार और धन पहुंचने में कमी आई है. बड़ी संख्या में नक्सली मारे गए हैं. स्वयं नक्सली ही स्वीकार कर रहे हैं कि पिछले एक साल में उनके साढ़े तीन सौ से ज्यादा साथी मारे जा चुके हैं. मुहावरे की भाषा में कहें तो नक्सलियों के पैर उखड़ चुके हैं. इसलिए यह माना जा रहा है कि नक्सलियों का खात्मा बचे हुए अगले छह महीने में हो जाएगा.
मगर असली सवाल यह है कि नक्सलियों के खात्मे के साथ क्या नक्सलवाद भी समाप्त हो जाएगा? जो शहरी नक्सली हैं, जिनकी पहचान मुश्किल है, वे तो हर हाल में नक्सलवाद को जिंदा रखना चाहेंगे ही. नक्सलियों ने कहा भी है कि उनके पास साधन खत्म होने का यह मतलब नहीं है कि वे अपनी गतिविधियां रोक देंगे. वे नया स्वरूप धारण करेंगे और नक्सलवाद को जिंदा रखने की कोशिश करेंगे. जैसे ही उन्हें अनुकूल मौसम मिलेगा, वे फिर से पनप जाएंगे.
तो सवाल है कि नक्सलवाद को कैसे समाप्त किया जाए? निश्चित रूप से सरकार कुछ जरूर सोच रही होगी लेकिन जो लोग नक्सलवाद को जानते हैं, उनकी राय स्पष्ट है कि उन इलाकों में विकास की धारा तेजी से प्रवाहित करके ही नक्सलवाद को समाप्त किया जा सकता है. इस बात से सभी वाकिफ हैं कि नक्सल प्रभावित इलाकों में यदि सड़क भी बनती है तो काम बहुत घटिया होता है और सड़क एक बारिश भी नहीं झेल पाती है.
इस भ्रष्टाचार को रोकना होगा और आदिवासी क्षेत्रों के लिए निर्धारित पूरी राशि का सदुपयोग सुनिश्चित करना होगा. यदि सरकार ऐसा कर पाती है तो भोले-भाले आदिवासियों को नक्सली फिर कभी भ्रमित नहीं कर पाएंगे. सुरक्षा बलों को भी ध्यान रखना होगा कि जंगल में बसे लोगों को नक्सली आतंकित न कर पाएं. डगर कठिन है लेकिन लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है.