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हेमधर शर्मा ब्लॉग: अहंकार के भाव और योग्यता के अभाव से गिरती लोकतंत्र की गरिमा

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: October 16, 2024 07:17 IST

इसका सम्मान करने के बजाय अगर इसे उनकी कमजोरी मानने की गलती की जाए, तभी शायद नक्सलवाद जैसे हिंसक तरीके पनपते हैं।

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पर्यावरणविद्‌ सोनम वांगचुक समेत 26 लोग दिल्ली में पिछले दस दिनों से भूख हड़ताल पर हैं। लद्दाख में उन्होंने माइनस दस डिग्री के तापमान में 21 दिनों का उपवास किया था। वहां भी लोगों ने उनके साथ उपवास रखा था। कोई सुनवाई नहीं हुई। अब दिल्ली में कोशिश कर रहे हैं, पर सरकार उन्हें और उनके साथियों को हिरासत में लेकर अपनी ताकत दिखाने पर अड़ी हुई है।

वांगचुक की मांग क्या है? प्राकृतिक रूप से संवेदनशील अपने लद्दाख क्षेत्र का संरक्षण-संवर्धन। केंद्र सरकार से लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची के तहत लाने के अपने वादे को निभाने की गुजारिश, जो 2019 के लोकसभा चुनाव के समय किया गया था। यह उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं है। जो काम सरकार को स्वयं करना चाहिए, उसे करवाने के लिए उन्हें सरकार से लड़ना पड़ रहा है। गनीमत है कि सोनम का तरीका गांधीवादी है। हिंसा से लथपथ दुनिया में क्या हमारे नेता इस तरीके के महत्व को समझ पा रहे हैं?

गांधीजी ने अंग्रेजों से अहिंसक लड़ाई लड़ी थी, और उन्हीं अंग्रेजों के देश इंग्लैंड में संसद के सामने गांधीजी की मूर्ति स्थापित है। लेकिन जिसने हमें आजादी दिलाई, आजादी के बाद हम आधे साल भी उसकी हिफाजत नहीं कर सके! क्या अपनों से लड़ना इतना कठिन होता है? लोकतंत्र में सरकार बेशक जनप्रतिनिधि चलाते हैं, पर वे विशेषज्ञों का स्थान नहीं ले सकते। पुराने जमाने में सत्ता राजाओं के हाथ में ही रहती थी, पर वे विद्वानों का आदर करते थे, उनकी सलाह पर चलते थे। लोकतंत्र में हमारे सेवक (उर्फ शासक) भी विशेषज्ञों की राय जानने के लिए समितियों का गठन करते हैं, परंतु रिपोर्ट अनुकूल न हो तो कई बार उसे दबाकर बैठ जाते हैं! पश्चिमी घाट के संरक्षण को लेकर गाडगिल समिति ने वर्ष 2011 में ही अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। उस पर अमल किया गया होता तो पिछले दिनों केरल में आई भयावह बाढ़ से बचा जा सकता था। हिमालय दरक रहा है, विशेषज्ञ इसकी वहन क्षमता को लेकर लगातार चेतावनी दे रहे हैं लेकिन वहां पर्यटकों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है और राजस्व के लालच में सरकार आंखें मूंदे रहती है।.

मैदानी इलाकों जैसे प्रदूषण से अपने लद्दाख क्षेत्र को बचाने के लिए सोनम वांगचुक सरीखे लोग जी-जान से जुटे हुए हैं। क्या उनकी मांग इतनी बड़ी या नाजायज है कि महीनों के अनशन-प्रदर्शन के बाद भी सरकार का दिल न पिघले? कहते हैं जापान में लोग हड़ताल करते हैं तो काम ज्यादा करते हैं। गांधी तो हमारी विरासत हैं; फिर हम अपनी मांगों को मनवाने के लिए तोड़फोड़ क्यों करते हैं? क्या इससे कम की कोई चीज हमारे देश के नीति-नियंताओं पर असर ही नहीं करती?

सोनम वांगचुक जैसे गांधीवादियों के शांतिपूर्ण प्रयास अब दुनिया में दुर्लभ हो चले हैं। इसका सम्मान करने के बजाय अगर इसे उनकी कमजोरी मानने की गलती की जाए, तभी शायद नक्सलवाद जैसे हिंसक तरीके पनपते हैं। लोकतंत्र बहुत अच्छी चीज है, लेकिन इसके साथ क्या हमें योग्यता को भी नहीं जोड़ना चाहिए, ताकि इतना सुंदर तंत्र बंदर के हाथ में उस्तरे की तरह न बन जाए?

टॅग्स :लद्दाखभारतLadakh Autonomous Hill Development Council
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