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वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: खस्ता नजर आ रही है विपक्ष की हालत

By वेद प्रताप वैदिक | Published: July 23, 2022 10:36 AM

ममता बनर्जी ने यशवंत सिन्हा को अपने प्रचार के लिए पश्चिम बंगाल आने का भी आग्रह नहीं किया। इसी का नतीजा है कि तृणमूल कांग्रेस के कुछ विधायकों और सांसदों ने भाजपा की उम्मीदवार मुर्मू को अपना वोट दे दिया। इससे यही प्रकट होता है कि विभिन्न विपक्षी दलों की एकता तो खटाई में पड़ी ही हुई है, इन दलों के अंदर भी असंतुष्ट तत्वों की भरमार है।

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ठळक मुद्देदेश में पिछले दिनों दो-तीन बड़े आंदोलन चले लेकिन विरोधी दलों की भूमिका नगण्य रही। ममता बनर्जी खुद कांग्रेसी नेता रही हैं और अपनी पार्टी के नाम में उन्होंने कांग्रेस का नाम भी जोड़ रखा है।ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति के लिए यशवंत सिन्हा का भी डटकर समर्थन नहीं किया।

राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू के चुनाव ने सिद्ध कर दिया है कि भारत के विरोधी दल भाजपा को टक्कर देने में आज भी असमर्थ हैं और 2024 के चुनाव में भी भाजपा के सामने वे बौने सिद्ध होंगे अब उपराष्ट्रपति के चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने विपक्ष की उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा के समर्थन से इंकार कर दिया है। यानी विपक्ष की उम्मीदवार उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी हारेंगी। अल्वा कांग्रेसी हैं। तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस से बहुत आपत्ति है। 

हालांकि उसकी नेता ममता बनर्जी खुद कांग्रेसी नेता रही हैं और अपनी पार्टी के नाम में उन्होंने कांग्रेस का नाम भी जोड़ रखा है। ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति के लिए यशवंत सिन्हा का भी डटकर समर्थन नहीं किया। हालांकि सिन्हा उन्हीं की पार्टी के सदस्य थे। अब पता चला है कि ममता बनर्जी द्रौपदी मुर्मू की टक्कर में ओडिशा के ही एक आदिवासी नेता तुलसी मुंडा को खड़ा करना चाहती थीं। 

ममता बनर्जी ने यशवंत सिन्हा को अपने प्रचार के लिए पश्चिम बंगाल आने का भी आग्रह नहीं किया। इसी का नतीजा है कि तृणमूल कांग्रेस के कुछ विधायकों और सांसदों ने भाजपा की उम्मीदवार मुर्मू को अपना वोट दे दिया। इससे यही प्रकट होता है कि विभिन्न विपक्षी दलों की एकता तो खटाई में पड़ी ही हुई है, इन दलों के अंदर भी असंतुष्ट तत्वों की भरमार है। इसी का प्रमाण यह तथ्य है कि मुर्मू के पक्ष में कई दलों के विधायकों और सांसदों ने अपने वोट डाल दिए। कुछ गैर-भाजपा पार्टियों ने भी मुर्मू का समर्थन किया है। 

इसी का परिणाम है कि जिस भाजपा की उम्मीदवार मुर्मू को 49 प्रतिशत वोट पक्के थे, उन्हें लगभग 65 प्रतिशत वोट मिल गए। द्रौपदी मुर्मू के चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया है कि भारत के विपक्षी दलों के पास न तो कोई ऐसा नेता है और न ही ऐसी नीति है, जो सबको एकसूत्र में बांध सके। देश में पिछले दिनों दो-तीन बड़े आंदोलन चले लेकिन विरोधी दलों की भूमिका नगण्य रही। 

वे संसद की गतिविधियां जरूर ठप कर सकते हैं और अपने नेताओं के खातिर जन-प्रदर्शन भी आयोजित कर सकते हैं लेकिन देश के आम नागरिकों पर उनकी गतिविधियों का असर उल्टा ही होता है। यह ठीक है कि यदि वे राष्ट्रपति पद के लिए किसी प्रमुख विरोधी नेता को तैयार कर लेते तो वह भी हार जाता लेकिन विपक्ष की एकता को वह मजबूत बना सकता था। लेकिन विपक्ष ने यह संदेश दिया कि उसके पास योग्य नेताओं का अभाव है।

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