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ब्लॉग: प्रधानमंत्री और धनखड़ के बीच दुर्लभ तालमेल

By हरीश गुप्ता | Updated: November 2, 2023 11:17 IST

इसी तरह, एम. वेंकैया नायडू भी नरेंद्र मोदी के करीबी नहीं थे और इसीलिए उन्हें न तो राष्ट्रपति के रूप में पदोन्नत किया गया और न ही डॉ. हामिद अंसारी की तरह उपराष्ट्रपति के रूप में दोहराया गया। हालांकि, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का मामला अलग है। जब वे सुप्रीम कोर्ट के वकील थे, उस समय से उनके पुराने जुड़ाव के कारण मोदी ने व्यक्तिगत रूप से उन्हें चुना।

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ठळक मुद्देडॉ. हामिद अंसारी व्यक्तिगत रूप से यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के करीबी नहीं थे, फिर भी उन्होंने उपराष्ट्रपति के रूप में दस वर्षों तक काम कियाधनखड़ और प्रधानमंत्री मोदी के बीच बेहद करीबी रिश्ता बन गया हैराष्ट्रपति का चयन मौजूदा राजनीतिक स्थिति के अनुसार विभिन्न मापदंडों पर आधारित होता है

उपराष्ट्रपति का चयन तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा उनकी क्षमता और उनके द्वारा अर्जित विश्वास के आधार पर किया जाता है। हालांकि कभी-कभी जरूरी नहीं होता है कि चयन घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर ही हो। हाल के वर्षों में, यह सर्वविदित है कि कृष्णकांत और भैरोंसिंह शेखावत को उनकी व्यक्तिगत मित्रता के कारण आई.के. गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी ने चुना था। डॉ. हामिद अंसारी व्यक्तिगत रूप से यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के करीबी नहीं थे, फिर भी उन्होंने उपराष्ट्रपति के रूप में दस वर्षों तक काम किया।

इसी तरह, एम. वेंकैया नायडू भी नरेंद्र मोदी के करीबी नहीं थे और इसीलिए उन्हें न तो राष्ट्रपति के रूप में पदोन्नत किया गया और न ही डॉ. हामिद अंसारी की तरह उपराष्ट्रपति के रूप में दोहराया गया। हालांकि, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का मामला अलग है। जब वे सुप्रीम कोर्ट के वकील थे, उस समय से उनके पुराने जुड़ाव के कारण मोदी ने व्यक्तिगत रूप से उन्हें चुना। जब धनखड़ को पश्चिम बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया तो राजनीतिक हलकों में आश्चर्य हुआ। लेकिन धनखड़ ने राज्यपाल के रूप में अपने कामकाज से मोदी का विश्वास अर्जित किया।

2021 के विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी की जीत के बाद मची उथल-पुथल से निपटने में उनके बेहद सक्रिय दृष्टिकोण ने मोदी का दिल खुश कर दिया। उपराष्ट्रपति के रूप में धनखड़ की पदोन्नति अच्छी सफलता थी। धनखड़ राजस्थान के अपने कई दौरों के दौरान उपराष्ट्रपति के रूप में अपनी भूमिका में बेहद सक्रिय रहे हैं और इस मुद्दे पर राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ उनकी मौखिक बहस भी हुई है।

अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि धनखड़ और प्रधानमंत्री मोदी के बीच बेहद करीबी रिश्ता बन गया है और वे महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने विचार साझा करते हैं। धनखड़ ने जिस तरह से सभापति के तौर पर राज्यसभा की कार्यवाही संभाली है, उससे मोदी बेहद खुश हैं। उपराष्ट्रपति के रूप में धनखड़ के चयन का श्रेय राजस्थान और अन्य जगहों पर जाट समुदाय को खुश करने के रूप में दिया जा सकता है। लेकिन अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि इसका वोट बैंक की राजनीति के बजाय व्यक्तिगत तालमेल से अधिक लेना-देना था।

कैसे होता है राष्ट्रपति का चयन

राष्ट्रपति का चयन मौजूदा राजनीतिक स्थिति के अनुसार विभिन्न मापदंडों पर आधारित होता है। आम तौर पर, यदि गठबंधन सरकार हो तो चयन सहयोगियों के परामर्श से किया जाता है और सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेतृत्व से भी परामर्श किया जाता है। इतिहास हमें बताता है कि आजादी की शुरुआत में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के समय से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के करीबी विश्वासपात्र नहीं थे। प्रधानमंत्री हमेशा सरकार के सुचारु कामकाज के लिए शीर्ष पद पर अपने भरोसेमंद वफादारों को चुनना चाहते और ‘रबर स्टाम्प’ व्यक्ति को प्राथमिकता देते रहे हैं।

ज्ञानी जैल सिंह या कुछ हद तक प्रणब मुखर्जी को छोड़कर, कुर्सी पर बैठे किसी भी व्यक्ति ने पार्टी नेतृत्व को उलझन में डालते हुए अपना अलग रास्ता नहीं चुना। कभी-कभी राष्ट्रपतियों का चयन उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए भी किया जाता था, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को चुनने के मामले में, यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीतिक कारणों से ही रामनाथ कोविंद और द्रौपदी मुर्मु को राष्ट्रपति पद के लिए चुना। ये दोनों अपने आप में मोदी के वफादार या उनके करीबी विश्वासपात्र नहीं थे। उन्हें उन समुदायों में पार्टी की पहुंच बढ़ाने के लिए चुना गया था, जहां से वे संबंध रखते थे। 

दबाव के आगे झुकी भाजपा

लंबे समय के बाद भाजपा आलाकमान ने जमीनी हकीकत के दबाव में झुकने के संकेत दिए हैं। 75 साल से अधिक उम्र के नेताओं को टिकट न देने का नियम टूटा तो आलाकमान ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों के खिलाफ अपने सख्त रुख से भी पीछे हटा। यह कोई रहस्य नहीं है कि वसुंधरा राजे सिंधिया (राजस्थान), शिवराज सिंह चौहान (मध्य प्रदेश) व रमन सिंह (छत्तीसगढ़) भाजपा आलाकमान की पसंद नहीं थे। इसके विपरीत, वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह को पिछले कई वर्षों से पूरी तरह से किनारे कर दिया गया था। यद्यपि चौहान को मुख्यमंत्री बनाया गया था, लेकिन उन्हें अपने भाग्य पर छोड़ दिया गया।

यहां तक कि पार्टी के वरिष्ठ सांसदों को भी लगता है कि उन्हें दरकिनार कर दिया गया है और 2024 के लोकसभा चुनावों में टिकट को लेकर उनके सिर पर हमेशा तलवार लटकी रहती है। लेकिन हाल ही में, आलाकमान ने बदलाव के संकेत दिए और इस जमीनी हकीकत के सामने घुटने टेक दिए कि तीन क्षेत्रीय क्षत्रपों के बिना पार्टी एकजुट नहीं रहेगी। न सिर्फ उन्हें टिकट दिया गया बल्कि उनके समर्थकों को भी जगह दी गई। राजनीतिक विश्लेषक इस बात से भी हैरान थे कि साईं मंदिर पूजा समारोह में प्रधानमंत्री मोदी के साथ महाराष्ट्र के राज्यपाल, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस एक ही फ्रेम में थे। आमतौर पर ऐसे मौकों पर प्रधानमंत्री को दूसरे नेताओं के साथ नहीं देखा जाता है। कर्नाटक में भी भाजपा नेतृत्व ने बी.एस. येदियुरप्पा के साथ जाने का फैसला किया है।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस चिंतित

आम धारणा के विपरीत कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ तीव्र सत्ता विरोधी लहर के कारण कांग्रेस मजबूत स्थिति में है, प्रमुख विपक्षी दल अपनी पकड़ खो रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि कुछ महीने पहले कांग्रेस भाजपा से काफी आगे थी। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए कड़ी मेहनत की और दूरियां पाटीं। कांग्रेस की अंदरूनी कलह खुलकर सामने आने से आलाकमान की चिंता बढ़ गई है।

कांग्रेस को काफी हद तक नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि पीसीसी चीफ कमलनाथ अपनी वरिष्ठता के कारण किसी की नहीं सुनते थे और इससे उनके और वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के बीच दूरियां पैदा हो गईं। आलाकमान ने सभी वरिष्ठों को उच्चस्तरीय बैठक में बुलाया। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है क्योंकि भाजपा ने राज्य को बरकरार रखने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी है। चौहान भले ही बच गए हों लेकिन यह स्पष्ट है कि अगर पार्टी राज्य जीतती है तो चुनाव के बाद वह मुख्यमंत्री नहीं होंगे।

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