किसी भी समाज के विकास में नेतृत्व की विशेष भूमिका होती है. नेतृत्व के प्रतिमानों की भारतीय परंपरा में श्रीराम एक ऐसे प्रजावत्सल और पराक्रमी शासक के रूप में प्रतिष्ठित हैं जो नैतिक मानदंडों के लिए पूरी तरह से समर्पित हैं और उनकी रक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ते। उनके रामराज्य की छवि इसलिए प्रसिद्ध और लोकप्रिय है कि उसमें आम जन को किसी भी तरह के ताप या कष्ट नहीं अनुभव करने पड़ते थे न भौतिक, न दैहिक न दैविक।
यदि आज की शब्दावली में कहें तो ‘जीवन की गुणवत्ता’ उच्च स्तर की थी और ‘मानव विकास सूचकांक’ भी आदर्श स्तर का था। लोग सुखी और समृद्ध थे। श्रीराम लोक-जीवन के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे और लोक-हित ही उनका सर्वोपरि सरोकार था। उनको अपना नेता पाकर सभी वर्ग धन्य थे।
ऐसा नेतृत्व प्रदान करने के लिए बड़ी तैयारी हुई थी। विभिन्न कौशलों में सक्षम श्रीराम को बाल्यावस्था से ही प्रशिक्षण मिल रहा था। वे एक तपस्वी की भांति साधना कर रहे थे। उनको एक लंबे कंटकाकीर्ण जीवन-पथ पर चलना पड़ा, उन्हें अनेक दुःख झेलने पड़े थे और बड़े जीवट के साथ बहुत कुछ सहन करते हुए अपने में प्रतिरोध की क्षमता भी विकसित करनी पड़ी थी. वे एक प्रतिष्ठित राजपरिवार में जन्मे थे। राजपुत्र थे और वह भी सबमें ज्येष्ठ। ऐसा होने पर भी उन्हें किसी तरह की छूट नहीं थी, उल्टे विधि का विधान कुछ ऐसा हुआ कि युवा श्रीराम को राजपाट मिलते-मिलते रह गया। सिंहासन की जगह अनिश्चित जीवन जीने के लिए चौदह वर्षों के लिए लंबे वनवास को जाना पड़ा।
श्रीराम ने अपने जीवन में आने वाले सभी विपर्ययों को बड़ी सहजता से स्वीकार किया और अपने मन में किसी के प्रति कुंठा या क्षोभ का भाव नहीं पाला। ये अनुभव उनको और परिपक्व करने वाले सिद्ध हुए। श्रीराम की निर्मिति में उनके ऊबड़-खाबड़ वनवासी जीवन के विभिन्न अनुभवों की बहुत खास भूमिका रही। इस दौरान वे विभिन्न वर्गों के लोगों से मिले, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में किस्म-किस्म की कठिनाइयों को झेला। उनको मनुष्य जीवन की सीमाओं और संभावनाओं को पहचानने का और उनकी जटिलताओं को सीखने का अवसर मिला।
त्याग, संयम और संतोष के साथ आत्म-नियंत्रण विकसित हुआ। विजयादशमी के उत्सव को मनाने की सार्थकता उन मूल्यों का स्मरण करने और जीवन में प्रतिष्ठित करने में है जिनकी अभिव्यक्ति श्रीराम के कार्यों में प्रकट होती है। विजयादशमी का पर्व अपनी कमजोरियों पर विजय के लिए भी आमंत्रित करता है। हमें अपने भीतर के रावण पर विजय पानी होगी। भारतवासियों को वेद में अमृतपुत्र कहा गया है। आज इस अमृतत्व की रक्षा का संकल्प लेना ही श्रीराम के स्मरण को सार्थक बनाएगा।