केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) की ‘वार्षिक भूजल गुणवत्ता रिपोर्ट-2024’ का यह खुलासा बेहद चिंताजनक है कि महाराष्ट्र के सात जिलों वर्धा, बुलढाणा, अमरावती, यवतमाल, नांदेड़, बीड़ और जलगांव के पानी में जहर घुला हुआ है. रिपोर्ट में देशभर में ऐसे 15 जिलों को चिन्हित किया गया है, जिसमें से सात अकेले महाराष्ट्र में ही हैं, जहां भूजल में नाइट्रेट की सीमा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) द्वारा निर्धारित 45एमजी/लीटर के मानक से अधिक पाई गई है.
नाइट्रेट की अधिकता से पेट का कैंसर, बच्चों में ब्लू बेबी सिंड्रोम, जन्म दोष, जन्मजात असामान्यताएं, न्यूरल ट्यूब दोष जैसी समस्याएं हो सकती हैं. भूजल में नाइट्रेट बढ़ने का मुख्य कारण खेतों में डाली जाने वाली रासायनिक खाद और सीवरेज का कुप्रबंधन है. खेतों में हम रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध छिड़काव से अनाज की पैदावार तो बढ़ा लेते हैं लेकिन बरसात के पानी के साथ ये भूजल में मिलकर उसे जहरीला बना देते हैं.
इसके अलावा सेप्टिक टैंक से निकलने वाले तरल अपशिष्ट में भी नाइट्रेट होता है और टैंक से अगर उसका रिसाव होता है तो वह भूजल में जाकर मिल जाता है. हालांकि भूजल में नाइट्रेट की मात्रा को लेकर देश के 15 जिलों को ही रेड जोन में डाला गया है, लेकिन हकीकत यह है कि भारत का लगभग 37 प्रतिशत जमीनी क्षेत्र और 38 करोड़ लोग नाइट्रेट प्रदूषण की जद में हैं.
इसमें उत्तरप्रदेश, केरल, झारखंड और बिहार जैसे राज्यों को खतरे के कगार पर बताया जा रहा है. आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले दो दशकों में नाइट्रेट प्रदूषण में करीब 52 फीसदी की वृद्धि हुई है. वर्ष 2000 में 22 राज्यों के 267 जिलों में 1549 स्थानों पर नाइट्रेट प्रदूषण था, जबकि वर्ष 2018 में 22 राज्यों के 298 जिलों में 2352 स्थानों पर नाइट्रेट प्रदूषण पाया गया.
पिछले दिनों हुए एक अध्ययन से पता चला है कि बढ़ते नाइट्रोजन प्रदूषण के चलते अगले 26 वर्षों में दुनिया भर में पानी की भारी किल्लत हो सकती है और वैज्ञानिकों को अंदेशा है कि 2050 तक वैश्विक स्तर पर नदियों के एक तिहाई उप-बेसिनों को नाइट्रोजन प्रदूषण के चलते साफ पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ सकता है. शोधकर्ताओं ने चेताया है कि पानी की यह कमी और गुणवत्ता में आती यह गिरावट 2050 तक पहले की अपेक्षा 300 करोड़ से ज्यादा लोगों को प्रभावित कर सकती है और आशंका है कि बढ़ते प्रदूषण के कारण नदी स्रोत इंसानों और अन्य जीवों के लिए ‘असुरक्षित’ हो जाएंगे.
प्राचीनकाल से ही दुनिया भर में नदियों के किनारे मानव सभ्यताएं विकसित होती रही हैं. यह विडंबना ही है कि कथित विकास की अंधाधुंध होड़ में हमने अपने पेयजल स्रोतों को असुरक्षित बना दिया है. दुनिया में वैसे भी उपलब्ध कुल पानी के मुकाबले पीने योग्य पानी की मात्रा केवल तीन प्रतिशत है, जिसमें से 2.4 प्रतिशत ग्लेशियरों और उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में जमा हुआ है और केवल 0.6 प्रतिशत पानी ही नदियों, झीलों और तालाबों में है जिसे इस्तेमाल किया जा सकता है।
उस पर भी हम अपने पेयजल स्रोतों को जिस तरह से प्रदूषित करते जा रहे हैं, निश्चित रूप से वह भविष्य के गर्भ में छिपे बहुत बड़े खतरे का संकेत है, जिस पर अगर अभी ध्यान नहीं दिया गया तो शायद परिस्थिति हाथ से निकल जाए और हमारे करने के लिए कुछ बचे ही नहीं!