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होमर का ‘इलियड’ और बाबा बुल्के की गोसाईं गाथा 

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 2, 2025 05:17 IST

70 एमएम परदे पर ‘ओडिसी’ का अवतरण देखने के लिए हजारों दीवाने सालभर पहले ही टिकट बुक करवा चुके हैं.

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ठळक मुद्देकल्पना ही करनी होगी कि नोलन ‘इलियड’ बनाते, तो एकीलीज और हेलन कैसे होते? क्या ब्रैड पिट और डायना क्रूगर के निभाए किरदारों से उनकी तुलना होती?दुनिया चूंकि बनी ही प्रवास की वजह से है, तो होमर भी साथ आए होंगे.

सुनील सोनी

महाकवि होमर जब विद्या की नौ देवियों ‘मूसाई’ से महाकाव्य ‘इलियड’ लिखवा रहे थे, उससे भी सात सदी पहले तक यानी ईसा पूर्व तेरहवीं सदी में यूनान के गली-मोहल्लों में ढोल-ताशों के साथ यह अद्भुत कथा वैसे ही कही जाती थी, जैसे बुंदेलखंड में आज भी आल्हा गाया जाता है. कालातीत हो चली किंवदंतियों को महाकाव्य बनाकर होमर ने कालजयी कर दिया. ‘इलियड’ और उसकी उत्तरकथा ‘ओडिसी’ 24-24 खंडों में छंदबद्ध हैं. उसमें इंसान भी हैं, देवता भी. फिल्मकार क्रिस्टोफर नोलन जो प्रयोग कर रहे हैं, वह अमेरिका में शायद सिनेमाघरों को बचा ले जाए, क्योंकि 70 एमएम परदे पर ‘ओडिसी’ का अवतरण देखने के लिए हजारों दीवाने सालभर पहले ही टिकट बुक करवा चुके हैं. कल्पना ही करनी होगी कि नोलन ‘इलियड’ बनाते, तो एकीलीज और हेलन कैसे होते?

और क्या ब्रैड पिट और डायना क्रूगर के निभाए किरदारों से उनकी तुलना होती? पौने तीन हजार साल पुराने ‘पुराण’ होमर के महाकाव्य यूनान के इतिहास-संस्कृति की बुनियाद तो हैं ही, दुनिया की साहित्यिक थाती भी हैं. दुनिया चूंकि बनी ही प्रवास की वजह से है, तो होमर भी साथ आए होंगे.

पश्चिम से पूरब तक के इस सफर में मशहूर जर्मन भारतविद् ए. वेबर ने सन 1873 में प्रकाशित किताब ‘ऑन दि रामायण’ में ‘वाल्मीकि रामायण’ पर ‘इलियड’ प्रभाव का जिक्र किया, तो ‘रामकथा’ के अनुसंधान में जीवन लगा देनेवाले बाबा कामिल बुल्के ने आधी सदी बाद उसका तार्किक खंडन किया.

पहली सितंबर को हिंदी के इस पुरोधा की जयंती को भुला देना भारतीय समाज की साहित्य व साहित्यकारों को विस्मृत कर देने की लघुता का लघुभाग है. नागपुर में सन 1975 में हुए पहले विश्व हिंदी सम्मेलन का यह स्वर्णजयंती वर्ष है, तो सबसे प्रामाणिक माने जानेवाले बाबा बुल्के के अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश के प्रथम संस्करण का तीन साल बाद हीरक जयंती वर्ष होगा.

चूंकि सम्मेलन की आयोजक राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा थी, तो वे अनन्य हिंदीभक्त विनोबा भावे से मिलने पवनार गए और आश्रम में तुलसी प्रतिमा का लोकार्पण करते हुए कहा, ‘‘मोहिं नचावत तुलसी गोसाईं.’’ यूं तो सन 1773 में लंदन से पहला हिंदुस्तानी भाषा कोश जॉन फर्ग्युसन का था.

बनारस से 1870 में फादर जे. डी. वेट का हिंदी शब्दकोश, एम. डब्ल्यू. फैलन का हिंदुस्तानी कोश और 1984 में जे. टी प्लाट्स का उर्दू-हिंदी-अंग्रेजी कोश लंदन से प्रकाशित हो चुका था. लेकिन, वे आमजन को अप्राप्त थे. सन 1935 में बंबई, दार्जीलिंग होते हुए ‘झारखंड’ में गणित के अध्यापक बने इंजीनियर बुल्के ने उस दौर में महसूस किया था कि भारत के मध्यम वर्ग की आसक्ति अंग्रेजी के प्रति वैसी ही है,

जैसी उन्होंने अपनी जन्मभूमि बेल्जियम में देखी थी. कुलीन फ्रेंच से मुक्ति के फ्लेमिश आंदोलन की किशोरवय की याद से वे समझ पाए थे कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गांधी ने हिंदी को जनभाषा क्यों चुना. यही वजह थी कि विदेशी भाषा के सांस्कृृतिक वर्चस्व के विरोध में वे हिंदी प्रचार की सबसे महती आवाज बने.

नतीजा 1955 में ‘ए टेक्निकल इंग्लिश-हिंदी ग्लासरी’ के तौर पर निकला, जिसने 1968 में संपूर्ण कोश का रूप लिया. 17 अगस्त 1982 में देहांत के वक्त तक वे इसमें संशोधन व वृद्धि कर रहे थे. यह कोई तुलना नहीं है, पर होमर को जैसे लोक में व्याप्त गाथाओं से प्रेम है, वैसे ही बाबा बुल्के को भी.

वे गाथाओं की जड़ों, तनों, शाखाओं, पत्तों और पुष्पों को खोजते रहते हैं. तुलसी की अवधी से उन्हें प्यार है, जिसमें हिंदुस्तानी के बीज दिखते हैं. वह आमफहम भाषा है. यही उनके कोश का तरीका भी है. मॉरिस मैटरलिंक के नाटक दि ब्लू बर्ड’ का मूल फ्रेंच से सरल किंतु अद्भुत हिंदी अनुवाद ‘नील पंछी’ को धरोहर मानने में एतराज तो नहीं होना चाहिए.

हिंदी के पुरखों में से एक आचार्य शिवपूजन सहाय ने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के अध्यक्ष रहते हुए 1958 में उनसे यह अनुवाद करवाया था. उनकी मिट्टी में भी कम हिंदीजीवी पहुंचे थे. पुरानी दिल्ली के कश्मीरी गेट के निकोलसन सीमेट्री में उनकी मजार है, जहां शायद ही कोई हिंदीभाषी फूल चढ़ाने जाता हो.

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