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राजेश बादल का ब्लॉगः पाकिस्तान में क्या यह खामोश तख्तापलट है?

By राजेश बादल | Updated: October 15, 2019 10:06 IST

सालभर मुल्क की हुकूमत करने में इमरान खान की नाकामी को देखते हुए सेना ने यह कदम उठाया है. इमरान की ताजपोशी सेना के इशारे पर ही हुई थी. इमरान इस असलियत को जानते हैं. वे अपनी विफलताओं से भी वाकिफ हैं, इसलिए चुपचाप उन्होंने फौज के आगे हथियार डाल दिए हैं.

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ठळक मुद्देपाकिस्तान की सियासत से छन-छन  कर आ रही खबरें महत्वपूर्ण इशारा कर रही हैं. प्रधानमंत्नी इमरान खान एक तरह से अब केवल कश्मीर मामलों के विदेश मंत्नी बन कर रह गए हैं. फौज ने एक तरह से मुल्क की बागडोर संभाल ली है.

पाकिस्तान की सियासत से छन-छन  कर आ रही खबरें महत्वपूर्ण इशारा कर रही हैं. प्रधानमंत्नी इमरान खान एक तरह से अब केवल कश्मीर मामलों के विदेश मंत्नी बन कर रह गए हैं. फौज ने एक तरह से मुल्क की बागडोर संभाल ली है. सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा ने अब खजाने को भरने का बीड़ा उठाया है. सेना ने आर्थिक मसलों पर निर्णायक पकड़ बना ली है और कहा जा रहा है कि बिना इमरान को हटाए तख्तापलट की कार्रवाई हो चुकी है. 

सालभर मुल्क की हुकूमत करने में इमरान खान की नाकामी को देखते हुए सेना ने यह कदम उठाया है. इमरान की ताजपोशी सेना के इशारे पर ही हुई थी. इमरान इस असलियत को जानते हैं. वे अपनी विफलताओं से भी वाकिफ हैं, इसलिए चुपचाप उन्होंने फौज के आगे हथियार डाल दिए हैं. बुद्धिजीवी कसक के साथ एक बार फिर देश में जम्हूरियत फ्लॉप होते देख रहे हैं. 

करीब डेढ़ महीने से इमरान खान ने पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में कोई दखल नहीं दिया है और न ही आला नौकरशाह उनसे कोई निर्देश ले रहे हैं. यह पहली बार हुआ है, जब सेना ने वित्तीय प्रबंधन में हस्तक्षेप किया है और किसी प्रधानमंत्नी का सारे मंत्नालयों में असर करीब-करीब शून्य हो चुका है.

बीते दिनों सेना के मुख्यालय रावलपिंडी में जनरल बाजवा ने चुनिंदा उद्योगपतियों और आर्थिक जानकारों की एक गोपनीय बैठक बुलाई. इसमें पाकिस्तान को वित्तीय बदहाली से निजात दिलाने के लिए गंभीर मंत्नणा की गई. बैठक में कारोबारियों ने जनरल बाजवा से साफ-साफ कहा कि इमरान सरकार देश की हालत सुधारने में नाकाम रही है. इन उद्योगपतियों की राय थी कि अब सेना को ही खस्ताहाली दूर करने के लिए ठोस उपाय करने चाहिए. 

बैठक के बाद जनरल कमर जावेद बाजवा ने अलग-अलग गोपनीय बैठकें कीं. बाद में फौज ने एक अधिकृत बयान जारी किया जिसमें कहा गया था कि मुल्क की हिफाजत के लिए आर्थिक मजबूती बहुत आवश्यक है. इसलिए सेना इस मामले में उदासीन नहीं रह सकती. बयान के बाद वित्त मंत्नालय के प्रवक्ता उमर हामिद खान ने भी एक अधिकृत प्रतिक्रिया में सरकार की ओर से सेना की इस पहल का स्वागत किया.

इसके बाद ही पाकिस्तान में लोकतंत्न समर्थक ताकतों के कान खड़े हुए. बुद्धिजीवियों में फौज के इस कदम का विरोध तो है, लेकिन वे मानते हैं इस बार प्रधानमंत्नी इमरान खान ने खुद सेना को अपने तख्तापलट की दावत दी है. पाकिस्तान के जाने-माने अर्थशास्त्नी यूसुफ नजर इसे नरम तख्तापलट मानते हैं.

इससे पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इमरान खान को तलब किया था और अपना कर्ज चुकाने का तकाजा किया था. चीन का कर्ज अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कर्ज 20,000 करोड़ रुपए से दो गुना करीब 42,000 करोड़ रुपए है. चीन इससे बहुत असुविधाजनक स्थिति में है. उसने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की सभी परियोजनाएं बंद कर दी हैं. अब वह इनमें कोई  निवेश नहीं कर रहा है. इस चर्चा में इमरान के साथ जनरल बाजवा ने भी हिस्सा लिया था. 

प्रोटोकॉल के नाते यह बड़ी अटपटी बैठक थी. सेना के जनरल की मौजूदगी कूटनीतिक और प्रशासनिक जानकारों की नजर में पहेली सी थी. चीन को वास्तव में ग्वादर बंदरगाह में अनेक मुश्किलें आ रही हैं. वहां बिजली आपूर्ति की बड़ी जिम्मेदारी ईरान को निभानी थी. ईरान ने अपने 27 सैनिकों के नरसंहार के लिए पाकिस्तान को दोषी मानते हुए उसे परिणाम भुगतने की चेतावनी दी थी. उसने ग्वादर में बिजली आपूर्ति का काम बंद कर दिया. इसीलिए चीन से लौटकर इमरान सीधे ईरान भागे गए और ग्वादर मामले में सहायता के लिए गिड़गिड़ाए. 

इधर जनरल बाजवा ने पाकिस्तान लौटते ही 23 साल के लिए चीनी कंपनियों को आयकर से छूट दे दी. इन कंपनियों को बिक्रीकर और कस्टम ड्यूटी भी नहीं देनी होगी. दिलचस्प यह है कि चीन से लौटते ही पाकिस्तान के विदेश मंत्नी ने कहा कि कश्मीर के मसले पर भारत जाने से पहले चीनी राष्ट्रपति पाकिस्तानी प्रधानमंत्नी इमरान खान से मशविरा करना चाहते थे. इसी तरह ईरान यात्ना के बारे में पाकिस्तान ने कहा कि कश्मीर पर चर्चा ही ईरान यात्ना का मकसद था, जबकि ईरान ने इस पर कोई बात ही नहीं की. असल मसला तो ग्वादर के लिए बिजली आपूर्ति का था.

पाकिस्तान की सेना 50 से अधिक उद्योग संचालित कर रही  है. इसलिए फौज के लिए इन उद्योगों को जिंदा रखना अपने अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है. पहली बार सेना को अपने खर्चो में कटौती करनी पड़ी है. अगर फौज ही बिखर गई तो पाकिस्तान ही नहीं बचेगा. इसलिए न देश की खातिर न इमरान खान की नाकामी के कारण बल्कि सिर्फ अपने लिए सेना ने अब सरकार संभालने की पूरी तैयारी कर ली है. अवाम के लिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. जब चुने हुए प्रतिनिधि परिणाम न दे सकें तो फौज के अलावा विकल्प ही क्या रह जाता है?

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