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राजेश बादल का ब्लॉग: समाज को जोड़ने का काम करती रही हैं यात्राएं

By राजेश बादल | Updated: February 3, 2023 09:11 IST

कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष की यात्रा के बाद इस प्रश्न पर बहस स्वाभाविक है। विविधताओं से भरे इस देश में कुछ समय से सामाजिक ताने-बाने को झटके लगने के समर्थन में तर्क दिए जाते रहे हैं।

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ठळक मुद्देभारत के इतिहास में राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गैरराजनीतिक यात्राएं कोई अनूठी नहीं हैं।विनोबा भावे की भूदान यात्रा एक चमत्कारिक यात्रा थी।अभिनेता और फिर राजनेता बने सुनील दत्त की पदयात्राएं आज भी मिसाल हैं।

भारत की आजादी के बाद सबसे लंबी और सकारात्मक यात्रा हाल ही में श्रीनगर में समाप्त हो गई। इस यात्रा का मुख्य मकसद भारत को जोड़ना बताया गया था लेकिन एक वर्ग इसके पीछे सियासी गंध खोजता रहा है। इसके संपन्न होने के बाद अब यह देश चर्चा कर सकता है कि यात्रा का उद्देश्य असल में सियासी था अथवा वाकई यह सामाजिक सद्भाव और सारे हिंदुस्तान को एकजुट करने वाला था? 

कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष की यात्रा के बाद इस प्रश्न पर बहस स्वाभाविक है। विविधताओं से भरे इस देश में कुछ समय से सामाजिक ताने-बाने को झटके लगने के समर्थन में तर्क दिए जाते रहे हैं। यह भी गंभीरता से कहा जाता रहा है कि सियासत की अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाया गया है। यानी यक्ष प्रश्न है कि क्या वास्तव में डेढ़ सौ करोड़ की आबादी का यह राष्ट्र इन दिनों धर्मों, जातियों, उपजातियों, भाषा और रीति-रिवाजों के आधार पर सदियों से चली आ रही अनेकता में एकता की राह से भटक रहा है? 

इन सारे सवालों के उत्तर आज के भारत में खोजने की जरूरत है। सबसे पहले विचार इस पर होना चाहिए कि क्या आज का भारत असल में वैसा ही है, जैसा महात्मा गांधी और स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य नायकों ने बनाना चाहा था। आजादी के लिए हुई लड़ाई में कमोबेश सभी धर्मों के मानने वालों ने कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा लिया था। उन्होंने एक ऐसे स्वतंत्र देश का निर्माण करना चाहा था, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त हो। 

इसी कारण संविधान में भी इस भावना का सम्मान किया गया है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद पचहत्तर साल में धीरे-धीरे हमने लोकतंत्र में नव सामंतवाद को जड़ें जमाते देखा है और सामंती मानसिकता कभी भी अवाम के हक में काम नहीं करती। इस कारण आम नागरिक के हित और अधिकार हाशिए पर जा रहे हैं। आज भी समूचे संसार में भारत की जितनी प्रतिष्ठा है, वह यहां सभी मजहबों को बराबर सम्मान और सारी विचारधाराओं को संरक्षण देने के कारण है। किसी एक संस्कृति, किसी एक समाज को दूसरे से कोई चुनौती नहीं दी गई और न ही कोई समुदाय अन्य समुदाय के लिए खतरा बना। 

अलबत्ता अस्थायी तौर पर रिश्तों में ज्वार-भाटे आते रहे, जो हिंदुस्तान जैसे विराट और प्राचीन देश में एकदम स्वाभाविक प्रक्रिया है। मगर देश का हालिया दौर एक बेहद नाजुक पड़ाव से गुजर रहा है। इस पड़ाव पर हम पाते हैं कि सदियों से साथ रहते आए लोग एक-दूसरे को काटने के लिए दौड़ने लगे हैं। यह अजीब सा मंजर है, जिसमें गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। 

एक तरफ हम वसुधैव कुटुम्बकम्‌ की बात करते हैं तो दूसरी ओर मजहब के आधार पर अपने-अपने खोल में बंद होते जा रहे हैं। एक तरफ सारा विश्व भारतीय नौजवानों और उनकी प्रतिभा को सलाम कर रहा है तो दूसरी तरफ उस नई नस्ल को मानसिक रूप से प्रदूषित करने के प्रयास भी होते दिखाई दे रहे हैं। राष्ट्र की विकास धारा पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे माहौल में किसी न किसी को तो पहल करनी ही थी। 

किसी अन्य राजनीतिक दल ने आपस में जोड़ने वाला कोई सीमेंट तैयार नहीं किया और न ही चिंता दिखाई। बहुत संभव है कि भारत जोड़ो यात्रा के पीछे उद्देश्य सियासी रहा हो और आगामी चुनाव में बेहतर परिणाम की आकांक्षा रही हो। लेकिन उसमें अनुचित अथवा अलोकतांत्रिक क्या है? अन्य राजनीतिक पार्टियों को भी यह पूरी छूट है कि वे अपने ढंग से ऐसी यात्राएं निकालें और अपने पक्ष में जनमानस तैयार करें (जैसा कि भारत में सत्ता पाने के लिए यात्राएं होती रही हैं) क्या अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, नवीन पटनायक या अन्य तमाम विपक्षी नेताओं ने भी अखिल भारतीय स्तर पर सामाजिक सद्भाव के मकसद से ऐसी कोई चिंता दिखाई है? यदि नहीं तो उन्हें किसने रोका था। 

भारत के इतिहास में राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गैरराजनीतिक यात्राएं कोई अनूठी नहीं हैं। विनोबा भावे की भूदान यात्रा एक चमत्कारिक यात्रा थी। उसमें लाखों हेक्टेयर जमीन भूमिहीनों के बीच बांटी गई थी। इसी तरह 1983 में चंद्रशेखर की कन्याकुमारी से दिल्ली पदयात्रा के पांच बुनियादी मसले थे। हर नागरिक को पीने का पानी मिले, कुपोषण दूर हो, प्रत्येक बच्चे को पढ़ने का समान अवसर मिले। हर नागरिक को स्वास्थ्य और इलाज की बेहतर सुविधाएं मिलें और प्रत्येक भारतवासी को सम्मान से जीने का अधिकार मिले। 

ये सब आसमानी चाहतें नहीं थीं, बल्कि संवैधानिक गारंटी थी, जो संविधान निर्माताओं ने देश को दी थी। अभिनेता और फिर राजनेता बने सुनील दत्त की पदयात्राएं आज भी मिसाल हैं। जब पंजाब में आतंकवाद गंभीर समस्या बन गया तो सुनील दत्त ने शांति के लिए मुंबई से अमृतसर तक करीब 2000 किमी पदयात्रा की थी। इसके बाद परमाणु हथियारों के खिलाफ 1988 में उन्होंने 500 किमी यात्रा की। सामाजिक सद्भाव के लिए भी सुनील दत्त ने 1990 में बिहार में पदयात्रा की थी। सुनील दत्त की अगली पदयात्रा फैजाबाद से अयोध्या तक फिर एक बार सांप्रदायिक सद्भाव के लिए हुई थी।

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