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नई शिक्षा नीति की चुनौतियों पर भी देना होगा ध्यान, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग

By गिरीश्वर मिश्र | Published: November 24, 2020 4:21 PM

ज्ञान का केंद्र पश्चिम हो गया और आर्थिक-राजनीतिक उठा-पटक में ऐसा दांवपेंच चला कि उसे ही सार्वभौमिक ठहरा दिया गया. औद्योगीकरण और वैश्वीकरण की प्रवृत्तियों ने इसे और भी बल प्रदान किया.

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ठळक मुद्दे भारतीय ज्ञान परंपरा अवैध करार कर कठघरे में डाल दी गई. कुछ बदलाव भी हुए पर समग्र दृष्टि से परिवर्तन की बड़े दिनों से प्रतीक्षा थी. परीक्षा की प्रक्रिया को भी सरल और अधिक मानकीकृत करने की दिशा में प्रयास किया जाएगा.

शिक्षा का संबंध ज्ञान और व्यक्तित्व के परिष्कार से होता है, जिससे शरीर, बुद्धि और आत्मा का विकास हो सके. दूसरे शब्दों में सर्वागीण विकास ही उसका मकसद होता है.

प्राचीन भारत में गुरु -शिष्य परंपरा थी. गुरुकुल की संस्था स्वायत्त रूप में कार्य करती थी और   भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही तरह के विषयों में ज्ञान का अर्जन और विस्तार होता था. वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृति, दर्शन, आयुर्वेद, योग आदि शास्त्नों के ग्रंथों के विशाल संकलन और नालंदा, तक्षशिला तथा विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात विद्या केंद्रों की कीर्ति इस सुदृंढ परंपरा के जीवंत प्रमाण हैं.

काल क्रम में हुए ऐतिहासिक परिवर्तनों से इस ज्ञान परंपरा का ह्रास हुआ तथापि इसकी आंतरिक प्रतिरोधी शक्ति ने इसे किसी न किसी तरह जीवित रखा. इसे भारत के सामाजिक जीवन और संस्कृति से बहिष्कृत करने का कार्य अंग्रेजी राज ने किया. भारत में पहुंचने पर यहां की शिक्षा व्यवस्था को देख वे चकित थे.

उसकी शक्ति को आंक कर उन्होंने इसे समाप्त करने में ही अपना लाभ देखा और अंतत: लार्ड मैकाले की नीति के अनुरूप एक पराई शिक्षा और उसके माध्यम से पश्चिमी संस्कृति, मूल्य और जीवन शैली को भारत में इस तरह रोपा गया कि इस पद्धति में पढ़ कर निकलने वाला व्यक्ति भारत और भारतीयता से अपरिचित ही न हो बल्किउसके प्रति संशयग्रस्त हो जाए.

दो सदियों लंबे औपनिवेशिक दौर में भारतीय शिक्षा का कायाकल्प हो गया और औपनिवेशिक धारा को इस तरह आत्मसात कर लिया गया कि वही प्रामाणिक हो  गई  और भारतीय ज्ञान परंपरा अवैध करार कर कठघरे में डाल दी गई. ज्ञान का केंद्र पश्चिम हो गया और आर्थिक-राजनीतिक उठा-पटक में ऐसा दांव-पेंच चला कि उसे ही सार्वभौमिक ठहरा दिया गया. औद्योगीकरण और वैश्वीकरण की प्रवृत्तियों ने इसे और भी बल प्रदान किया.

उक्त परिप्रेक्ष्य में शिक्षा कैसी दी जाए, इस प्रश्न पर स्वतंत्न भारत में चर्चा तो होती रही और कुछ बदलाव भी हुए पर समग्र दृष्टि से परिवर्तन की बड़े दिनों से प्रतीक्षा थी. शिक्षा नीति-2020 देश की आवश्यकताओं का आकलन करने के उपरांत व्यापक विचार-विमर्श के बाद प्रस्तुत हुई है. इसके अंतर्गत अध्ययन कार्यक्रमों के लक्ष्यों, पाठ्यक्रमों की संरचना, शिक्षण की युक्तियों में व्यापक  बदलाव का प्रस्ताव किया गया है. अध्ययन कार्यक्रमों के लक्ष्य को विद्यार्थी की योग्यता, अभिरुचि और उपयोगी कौशलों को ध्यान में रखते हुए व्यवस्थित किया गया है.

पूर्व प्राथमिक से आरंभ कर उच्च शिक्षा तक पाठ्यक्रमों की संरचना को लचीला बनाया गया है ताकि विद्यार्थी अपनी पसंद के अनुसार अध्ययन विषयों का चुनाव कर सकें. वाणिज्य, कला और विज्ञान की अब तक चली आ रही परिपाटी से अलग हट कर नए तरह की संयुक्तियों को लेकर भी पढ़ाई की जा सकेगी. अर्थात विज्ञान या वाणिज्य विषय वाला छात्न भी साहित्य विषय ले सकेगा. साथ ही परीक्षा की प्रक्रिया को भी सरल और अधिक मानकीकृत करने की दिशा में प्रयास किया जाएगा.

उच्च शिक्षा में अवसरों की समानता सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत और व्यवस्थागत सुधारों को क्रियान्वित करना होगा. महाविद्यालयों की संबद्धता प्रणाली के स्थान पर स्वायत्त उच्च शिक्षा संस्थानों का विकास, राष्ट्रीय स्तर पर प्रशासनिक संचालन को लचीला किंतु प्रभावकारी बनाना, शोध को बढ़ावा देना, अध्यापकों को बेहतर कार्य संस्कृति का भागीदार बनाना जरूरी कदम होंगे.

उनकी नियुक्ति, प्रमोशन और अन्य अभिप्रेरणाओं को सुनिश्चित करना और  बहुअनुशासनात्मकता  को ध्यान में रखते हुए उन्हें प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. इस क्रम में वास्तविक समस्याओं के समाधान द्वारा सीखना, अन्वेषण विधि, मननशील लेखन आदि तरीकों का उपयोग किया जाना चाहिए. साथ ही विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम के स्वदेशीकरण को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और भारतीय ज्ञान परंपरा को स्थान मिलना चाहिए.

टॅग्स :नई शिक्षा नीतिरमेश पोखरियाल निशंकनरेंद्र मोदीशिक्षा मंत्रालय
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