11 जुलाई 2006 को हुए मुंबई ट्रेन विस्फोट मामले में बंबई हाईकोर्ट द्वारा सभी 12 आरोपियों को बरी किए जाने के सोमवार को दिए गए फैसले ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया है. हाईकोर्ट ने जांच एजेंसियों द्वारा पेश किए गए सबूतों में कई खामियां निकालीं. विशेष पीठ ने एटीएस के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी करते हुए कहा उन्होंने मामले में महत्वपूर्ण गवाहों से पूछताछ नहीं की, बरामद सामान की सीलिंग तथा रखरखाव सही ढंग से नहीं किया.
आरोपियों के इकबालिया बयानों में भी बहुत समानताएं मिलीं, जो संदेहास्पद थीं. सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि एटीएस और क्राइम ब्रांच की इस भयावह घटना के बारे में थ्योरी ही अलग-अलग थी! एटीएस के अनुसार ट्रेन विस्फोटों की साजिश आईएसआई के इशारे पर रची गई थी और लश्कर-ए-तैयबा ने सिमी की मदद से इसे अंजाम दिया था, जबकि क्राइम ब्रांच के अनुसार इंडियन मुजाहिदीन ने साजिश को अंजमा दिया.
एटीएस का कहना था कि बम गोवंडी की झुग्गियों में प्रेशर कुकर में रखे गए थे और फिर ट्रेनों में लगाए गए, जबकि क्राइम ब्रांच ने दावा किया कि बम शिवडी के एक फ्लैट में तैयार किए गए थे. सवाल यह है कि इतनी बड़ी घटना की जांच में जांच एजेंसियों को क्या समन्वित तरीके से काम नहीं करना चाहिए था? आम लोग इसलिए स्तब्ध नहीं हैं कि आरोपियों को हाईकोर्ट ने बरी कर दिया, बल्कि इसलिए हैं कि 180 से ज्यादा लोगों की जान लेने वाली इतनी बड़ी वारदात अपने आप तो हो नहीं गई थी, फिर उसके दोषी आखिर गए कहां?
अगर असली अपराधी पकड़ में नहीं आ पाए हैं तब भी और अगर पुख्ता सबूतों के अभाव में अदालत से आरोपी बरी हो गए हैं तब भी जिम्मेदार जांच एजेंसियां ही हैं. उन्हें इतना पेशेवर तो होना ही चाहिए कि उनके द्वारा पेश किए जाने वाले सबूतों में अदालतों को कोई लूप होल न दिखे. 19 साल बाद भी अगर वे ऐसा नहीं कर पाईं तो उनके कामकाज के तरीके पर सवाल तो उठता ही है.
कहीं ऐसा तो नहीं है कि जांच एजेंसियों ने जांच का अपना एक ढर्रा बना लिया हो और हर मामले की जांच को अपने उसी खांचे में फिट करने की कोशिश करती हों! आखिर गवाहों के इकबालिया बयानों में समानता की और क्या वजह हो सकती है? जो भी हो, इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी अगर दोषी कोई नहीं है तो यह कोई मामूली बात नहीं है और व्यवस्था में लोगों के विश्वास को ऐसी घटनाओं से गहरा धक्का पहुंचता है.
हालांकि राज्य सरकार का कहना है कि वह बंबई हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेगी लेकिन हाईकोर्ट के फैसले से यह सबक तो लेना ही होगा कि कम से कम गंभीर मामलों की जांच तो चलताऊ ढंग से न की जाए ताकि दोषियों को उनके किए की सजा मिलना सुनिश्चित हो सके.