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दिल्ली को एक बार फिर से महान बनाएं

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: March 7, 2025 06:42 IST

दिल्ली का सबसे बड़ा मुद्दा पर्यावरण से जुड़ा है. वाहनों से होने वाला प्रदूषण, कूड़े के पहाड़, यमुना का प्रदूषण और वायु की गुणवत्ता - ये सभी इसके अंतर्गत आते हैं

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अभिलाष खांडेकर

‘अपूर्ण या अर्ध राज्य’ दिल्ली ने पिछले दशकों में शासन करने के कई प्रयोग और परेशानियां देखी हैं. जब भारत आजाद हुआ था, तब राज्य में कोई मुख्यमंत्री नहीं था. पहले मुख्यमंत्री ने 1952 में शपथ ली- विधानसभा बनने के एक साल बाद. चौधरी ब्रह्म प्रकाश भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले मुख्यमंत्री बने थे.

लेकिन दिल्ली का भाग्य अधर में लटक गया क्योंकि 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित होने के बाद राजनीतिक कारणों से मुख्यमंत्री का पद समाप्त कर दिया गया था. मुख्यमंत्री पद को फिर से बहाल होने में करीब चार दशक लग गए. राष्ट्रीय राजधानी, जिसे सबसे पहले अंग्रेजों ने चुना था, हमेशा स्थानीय स्तर पर सत्ता के लिए प्रशासनिक संघर्ष का गवाह रही है, जिसने इसे दुनिया का एक अनूठा शहर बना दिया है

.दिल्ली में विधानसभा थी लेकिन मुख्यमंत्री नहीं था. यह केंद्र शासित प्रदेश जैसा था, जिसमें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रशासक ही शासन चलाता था. भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की सत्ता का केंद्र रहे इस शहर के लिए उचित प्रशासनिक व्यवस्था विकसित करने हेतु कई समितियां गठित की गईं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

हालांकि पूर्ण राज्य का दर्जा पाने की मांग दशकों तक जारी रही और आज भी दो करोड़ से ज्यादा आबादी वाली राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को यह प्रतिष्ठित दर्जा नहीं मिल पाया है. यह लंबे समय तक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र बना रहा और 1993 में जाकर एक नियमित मुख्यमंत्री बने- भाजपा के मदन लाल खुराना. ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो वे दिल्ली के तीसरे मुख्यमंत्री थे, लेकिन मैं इस बारे में ज्यादा विस्तार में नहीं जाऊंगा.

अब जबकि भाजपा लगभग तीन दशकों और तीन मुख्यमंत्रियों - खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज - के बाद फिर सत्ता में वापस आ गई है, तो अब बड़े व अच्छे काम करने का समय आ गया है. अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली ‘आप’ सरकार के कई गड़े मुर्दे अब कैग रिपोर्ट और मुख्यमंत्री के आदेश के जरिये उखाड़े जा रहे हैं.

दुर्भाग्य से, मौजूदा दौर में घोटालों के अलग-अलग अर्थ हैं. वे अनिवार्य रूप से निर्धारित नियमों और विनियमों का उल्लंघन या वित्तीय अनियमितता ही नहीं हैं, लेकिन उन्हें एक तीक्ष्ण  राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है. भाजपा के राज में सामने आए नर्सिंग प्रवेश या फर्जी कॉलेजों के गंभीर परिणामों वाले घोटाले को जरूरी नहीं कि ‘संज्ञेय अपराध’ या घोटाला माना जाए, लेकिन अगर पंजाब, केरल या पश्चिम बंगाल में ऐसा कुछ होता है तो उसे तुरंत ‘घोटाला’ करार दे दिया जाता है.

यह विचित्र है लेकिन जीवन की सच्चाई है. भाजपा के तहत राजनीतिक ‘वाशिंग मशीन’ और दागी नेताओं व तंत्र का बेशर्मी से बचाव करने के बारे में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इसलिए मैं इसे यहीं छोड़ता हूं.

भाजपा, जिसने ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का नारा दिया था, वह उतनी ही तीव्रता से केजरीवाल शासन से घृणा करती थी.अब जबकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार इतिहास बन चुकी है, नई मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के नेतृत्व में ‘डबल इंजन सरकार’ से नई उम्मीदें हैं. लोग अब चाहते हैं कि दिल्ली एक बेहतर व विश्वस्तरीय शहर बने!

राजनीतिक इतिहास हमें बताता है कि 1998 से 2013 के बीच शीला दीक्षित के सबसे लंबे कार्यकाल के दौरान नई दिल्ली ने अभूतपूर्व विकास देखा था. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार और उसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने रचनात्मक तरीके से उनकी मदद की थी, जिसके परिणामस्वरूप दिल्ली के बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ.

बेशक, भाजपा और कांग्रेस के बीच मतभेद थे, लेकिन उस स्तर के नहीं, जैसा लोगों ने नई भाजपा और ‘आप’ के बीच देखा, जिसने कटु शत्रुता के कारण राष्ट्रीय राजधानी के विकास को रोक दिया था. प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी और विपक्षी मुख्यमंत्री के रूप में दीक्षित के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध थे, जब दोनों एक ही शहर में संबंधित सरकारों के प्रमुख थे.

संवैधानिक पद धारकों के बीच खुले झगड़े सौभाग्य से उन दिनों अनुपस्थित थे.चूंकि मैं कुछ सालों तक दिल्ली में रह चुका हूं और क्षेत्रीय पार्टी और दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक संगठन के बीच गंदी राजनीतिक लड़ाई देख चुका हूं, इसलिए जब हाल ही में हुए चुनावों में भाजपा को भारी बहुमत मिला तो मैंने राहत की सांस ली. शायद दिल्ली के मतदाता भी इस घिनौनी लड़ाई से तंग आ चुके थे. दिल्ली का सबसे बड़ा मुद्दा पर्यावरण से जुड़ा है. वाहनों से होने वाला प्रदूषण, कूड़े के पहाड़, यमुना का प्रदूषण और वायु की गुणवत्ता - ये सभी इसके अंतर्गत आते हैं और इन सभी का प्राथमिकता से समाधान होने की आवश्यकता है.

दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का समय भी शायद आ गया है. झारखंड जैसे छोटे राज्य में 81 सीटें हैं, जो दिल्ली से 11 ज्यादा हैं; गोवा में बहुत कम सीटें हैं - सिर्फ 40, लेकिन वह 1987 से ही राज्य है. तो दिल्ली क्यों नहीं? मामला पेचीदा है, पर असंभव नहीं है.अगले कई दशकों तक भारत पर शासन करने का लक्ष्य रखने वाली भाजपा आसानी से इस छोटे, अनूठे राज्य को पूर्ण राज्य का दर्जा दे सकती है और लोगों को उन समस्याओं से छुटकारा दिला सकती है, जिनका सामना यह छोटा, अनोखा राज्य राजनीतिक मतभेदों और शासन संबंधी समस्याओं के कारण इतने वर्षों से कर रहा है.

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