बापू की स्मृति सात्विक मूल्यों के लिए सतत संघर्ष की याद दिलाती है. सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (जरूरत से ज्यादा धन-सम्पदा न रखना), प्राकृतिक संसाधनों का दोहन न करना, शारीरिक श्रम, आपसी सौहार्द्र बनाए रखना गांधीजी के जीवन सूत्र थे. इनको लेकर वे निजी सामाजिक जीवन में खुद चलते थे और अपने साथ के लोगों को भी उनको अपनाने के लिए कहते थे.
उनकी संगति में बहुतों ने अपने लिए स्वदेशी विचार-व्यवहार को अपनाया भी. महात्मा गांधी के प्रभाव में खादी और चरखा घर-घर प्रचलित हुआ. स्वावलंबन के लिए सबने व्रत लिया. विकेंद्रीकृत और प्रजातांत्रिक तरीके से स्थानीय स्तर पर सामाजिक जीवन चलाने के कई सफल प्रयोग भी उन्होंने शुरू किए थे. स्थानीय और वैश्विक के अंतर्संबंधों को मानवीय स्तर पर समझने की उनकी कोशिश अनोखी थी. सीधी-सादी, सच्ची और लोक की रक्षा को समर्पित उनकी नीति स्वभाव में समावेशी थी.
उन्होंने एक मानवीय राजनीतिक संस्कृति का सूत्रपात किया और साहस के साथ उसे अपनाया. जीवन भर गांधीजी प्रयोग करते रहे और स्वयं को परखते रहे. उनके लिए ‘सर्व’ का कल्याण उचित-अनुचित तय करने की कसौटी थी. इस तरह की सोच समय से आगे थी और स्वतंत्र भारत के कर्णधारों को कदाचित बहुत प्रिय नहीं थी इसलिए उसका हाशियाकरण उनके जीते जी ही शुरू हो गया था जिसे वह प्रकट भी कर रहे थे.
स्वतंत्र भारत में मनाए गए पहले और अंतिम जन्मदिवस पर दो अक्तूबर 1947 को उन्होंने बड़े दुखी मन से अपनी मृत्यु की कामना की थी. कुछ महीनों बाद ही 1948 की जनवरी में उनके आकस्मिक और मर्मांतक दैहिक अवसान से देश के सम्मुख कई प्रश्न खड़े हुए. उनके विचार जीवित हैं और उनको स्मरण भी किया जाता है परंतु अब अनुष्ठान अधिक हैं और वास्तविकता के धरातल पर उनको उतारना बेहद मुश्किल हो रहा है.
आज राजनैतिक परिवेश दारुण और पीड़ादायी हो रहा है. सत्ता और शक्ति का नशा गहराता जा रहा है. ऐसे में विकसित भारत के लक्ष्य के लिए शुचिता की शर्त याद रखनी होगी. चरित्र का निर्माण और मूल्यों की प्रतिष्ठा का कोई विकल्प नहीं है. महात्मा गांधी औपनिवेशिक सता के प्रतिरोध और हिंद-स्वराज की स्थापना का स्वप्न चरितार्थ कर सके थे. मनुष्य के रूप में दुर्बल काया परंतु दृढ़ आत्मबल से उन्होंने जो उद्यम किया वह मनुष्य की उदात्त और ऊर्ध्वमुखी यात्रा का अविकल प्रमाण है.
असंभव संभावना को संभव करते महात्मा गांधी आज भी अविश्वसनीय रूप से स्पृहणीय और प्रेरक हैं. मनुष्य के कर्तृत्व की शक्ति का कोई विकल्प नहीं है. पर इसके लिए विचार और कर्म के बीच की दूरी जो बढ़ती जा रही है उसे कम करना होगा. आत्म-परिष्कार और अपने अहं से परे जाने और सर्व को प्रतिष्ठित करने के लिए हमें अपने स्वार्थों का अतिक्रमण करना होगा।