Maharashtra Local Body Elections 2025: लंबे समय तक एक-दूसरे के साथ बैठकर हंसने-बोलने वाले सत्ताधारी महागठबंधन के नेता चुनावी सभाओं में जमकर टीका-टिप्पणी कर रहे हैं. शिवसेना शिंदे गुट के नेता जहां अपने प्रमुख के कद को बड़ा बताने से नहीं चूक रहे, वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के नेता उन्हें दलबदल के किस्सों को याद दिला रहे हैं. स्थानीय निकाय के चुनावों के आरंभ में ही उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने जब नई दिल्ली का दौरा कर गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी, तब से ही तनाव की चर्चाएं सामने आने लगी थीं.
अब चुनाव प्रचार में दिल की बातें खुलकर सामने आ रही हैं. हालांकि मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस परिस्थितियों को यह कहकर संभालने की कोशिश में हैं कि ‘जो लोग हमारे बारे में बुरा बोलते हैं, उन्हें नजरअंदाज करें. चुनाव के दौरान ऐसी बातें कही जाती हैं, इसे दिल पर न लें. वह कह सकते हैं कि वह हमारी लंका जला देंगे. हम लंका में नहीं रहते. हम भगवान राम की पूजा करने वाली पार्टी हैं.’
भाजपा और शिवसेना में राम और रावण के नाम पर वाक्युद्ध होना आश्चर्यजनक है, लेकिन यह कहीं मन में छिपी खटास मानी जा सकती है. जो चुनाव की आड़ में उभर रही है. रणनीतिक दृष्टि में इसके माध्यम से भगवा विचारधारा में विश्वास रखने वाले मतदाता को विभाजित किया जा सकता है.
जिससे कोंकण जैसे कुछ क्षेत्रों में शिवसेना शिंदे गुट और भाजपा के बीच आमने-सामने का मुकाबला दोनों के बीच ही रहने देने की आशंका व्यक्त की जा सकती है. हालांकि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा अजीत पवार) गुट के नेता अजीत पवार भी बयान में कम नहीं हैं, लेकिन वह सीमाओं का अनुमान लगाना अच्छी तरह से जानते हैं.
दूसरी ओर शिवसेना शिंदे गुट की संस्कृति सीमा लांघकर लौटने की नहीं है. इन दिनों चुनावी माहौल में शिवसेना शिंदे गुट से उपमुख्यमंत्री शिंदे के अतिरिक्त राज्य सरकार में मंत्री गुलाबराव पाटील, दादा भुसे, कलमनुरी के विधायक संतोष बांगर, नीलेश राणे, भाजपा के मंत्री चंद्रशेखर बावनकुले, नीतेश राणे, हिंगोली के भाजपा विधायक तानाजी मुटकुले खुलेआम अपने गठबंधन के दल के नेताओं पर आरोप लगा रहे हैं. राज्य के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने यद्यपि यह बात मतदाताओं से कही कि वह ‘समझदारी से वोट’ दें और उन्हें चेताया कि अगर आपके पास ‘वोट’ है, तो उनके पास पैसा भी है.
इस बात का संदेश मतदाताओं के साथ गठबंधन के नेताओं के लिए साफ है. इसमें स्पष्टता इतनी अधिक रही कि पवार आलोचनाओं के बाद अपने बयान पर कायम रहे और कहा कि देश भर में चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी टिप्पणियां आम हैं. इसके बीच भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष चव्हाण दो दिसंबर तक गठबंधन बचाना चाहते हैं. उसके बाद आरोपों पर जवाब देंगे.
मुख्यमंत्री से लेकर विधायकों तक की यह स्थिति सामान्य नहीं मानी जा सकती है. तीनों दलों का गठबंधन परिस्थिति अनुसार हुआ था, जो बदल चुकी हैं. 132 सीटें जीतने के बाद भाजपा किसी के साथ भी सरकार बनाने की स्थिति में है. यही बात दूसरे दलों के लिए भी संभव है, क्योंकि वर्ष 2019 के बाद से राज्य में वैचारिक स्तर पर तालमेल के कोई मायने नहीं रह गए हैं.
किसी भी प्रकार की गठबंधन सरकार संभव है. राज्य में पहले चरण के स्थानीय निकाय चुनावों में विपक्ष की कमजोरी स्पष्ट रूप से झलक रही है. आने वाले दिनों में दूसरे और तीसरे चरण में जिला परिषद और महानगर पालिकाओं के भी चुनाव होंगे. जिनमें भी विपक्ष कमजोर रहा तो मुकाबला सत्ताधारी दलों के बीच होगा. जिसकी पृष्ठभूमि तैयार हो चली है.
इसे नूरा कुश्ती माना जाए या फिर मन की भड़ास निकालने का तरीका, जिसमें एक-दूसरे के खिलाफ जमकर बोला जा रहा है. कहीं यह वही सत्ता पाने की कशिश तो नहीं, जिस पर विधानसभा चुनाव के बाद अपनी सीटों के हिसाब से शिवसेना शिंदे गुट को समझौता कर बैठना पड़ा. कुछ यही कारण है कि वर्तमान चुनावों में बार-बार तत्कालीन मुख्यमंत्री शिंदे के कार्यकाल का स्मरण कराया जा रहा है.
एक साल के समय में महागठबंधन में किसे और किसका अहंकार दिखाया जा रहा है. वह भी यह जानते हुए कि चुनावी राजनीति में हर दल को अपनी क्षमता अनुसार अधिकतम सीटें जीतने का अधिकार है. स्पष्ट है कि महागठबंधन में समता और महत्वाकांक्षा में बड़ा अंतर है. भाजपा को जहां स्वयं को स्वतंत्र रूप से स्थापित करना है,
वहीं शिवसेना शिंदे गुट और राकांपा अजीत पवार गुट को अपने आप को मजबूत बनाना है. दल के भीतर भरोसा पैदा करना है. भले ही उसकी कीमत कितनी भी देनी क्यों न पड़े. यह सच है कि अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ बनाने और परीक्षण करने के लिए स्थानीय निकायों से अच्छा अवसर दूसरा कोई नहीं हो सकता है.
इसी दिशा में भाजपा सहित सभी दलों के समान प्रयास हैं. किंतु सीमाओं का अनुमान किसी को नहीं है. अपने दल की वफादारी में वचन की मर्यादा को लांघने में संकोच नहीं है. आने वाले समय में दो चुनाव और हैं. उनके बाद चार साल सरकार चलाने का समय है. विकल्प सभी के लिए उपलब्ध हैं, लेकिन आसान किसी के लिए भी नहीं हैं. इसलिए समय की नजाकत को समझ कर और स्वयं के आकलन के आधार पर ही आगे बढ़ना उचित है. सत्ता में साझेदारी का अपना नफा-नुकसान है. यह गठबंधन से पहले ही समझा जाना चाहिए.
यदि घुटन है तो रास्ते भी खुले हैं. मगर उन पर चलने के लिए साहस जरूरी है. दुस्साहस से समस्याएं बनती अधिक हैं, सुलझती कम हैं. फिलहाल महागठबंधन के तीनों दलों को अपनी-अपनी ताकत के प्रदर्शन के लिए एक-दूसरे पर तीर चलाने का रास्ता चुनाव मिला है. दो दिसंबर के बाद सुलह और शांति होगी.
जिसके लिए अभी मशहूर शायर बशीर बद्र के शब्दों में कहा जा सकता है कि :-
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे,जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों.