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जमीनी और आसमानी संकट सिर पर एक साथ, समस्याओं को शोला बनने से रोकना आवश्यक

By Amitabh Shrivastava | Updated: August 30, 2025 05:26 IST

राजनीति के नाम पर नेताओं के दौरे और मेल-जोल के किस्से बन रहे हैं, लेकिन समाज में बढ़ती खाई कम नहीं की जा रही है.

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ठळक मुद्देसमाज आंदोलन पर उतारू है, तो दूसरे को भी हंगामे के लिए हवा मिल रही है. बरसात से प्रभावित होने वाले क्षेत्र तय हैं, लेकिन वहां बाढ़ के पानी से निपटा नहीं जा रहा है.महाराष्ट्र में कर्नाटक सीमा के बांध, हर प्रदेश अपने क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए पानी रोक रहे हैं.

Maharashtra Floods: यह माना जा सकता है कि महाराष्ट्र में हो रही बरसात पर नियंत्रण संभव नहीं है. केवल उससे बने हालात से निपटने की तैयारी की जा सकती है. मगर मनोज जरांगे के नेतृत्व में चल रहे मराठा आरक्षण आंदोलन के समाधान के लिए तो प्रयास किए ही जा सकते थे. जिनकी तारीख और स्थान तय था. किंतु राज्य सरकार का समस्याओं के प्रति ढुलमुल रवैया अपने आप समस्याएं बड़ी करता जा रहा है. स्थितियां यह हैं कि हर तरफ से आम आदमी संकट में है. राजनीति के नाम पर नेताओं के दौरे और मेल-जोल के किस्से बन रहे हैं, लेकिन समाज में बढ़ती खाई कम नहीं की जा रही है.

यदि एक समाज आंदोलन पर उतारू है, तो दूसरे को भी हंगामे के लिए हवा मिल रही है. दूसरी ओर प्रदेश में बरसात से प्रभावित होने वाले क्षेत्र तय हैं, लेकिन वहां बाढ़ के पानी से निपटा नहीं जा रहा है. मराठवाड़ा में तेलगांना सीमा हो या फिर दक्षिण महाराष्ट्र में कर्नाटक सीमा के बांध, हर प्रदेश अपने क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए पानी रोक रहे हैं.

जिससे पीछे के इलाकों में जलभराव हो रहा है. ये स्थितियां नई नहीं हैं. सर्वविदित होने के बावजूद जलसंकट यथावत है. सत्ता-सरकार बदलने से स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं है. आम तौर पर हर साल जून माह से राज्य में आरंभ होने वाली मानसूनी बरसात इस बार समय से पहले अपना असर दिखाने लगी थी.

बीच के कुछ दिनों के अंतर के बाद बरसात ने जुलाई माह से जोर पकड़ा और अगस्त में काफी स्थानों पर मूसलाधार बरसात हो रही है. नासिक से आरंभ होने वाली गोदावरी नदी शुरुआत से ही अधिक पानी होने के कारण तेज गति से बहती नजर आ रही है. बीते सालों में महाराष्ट्र के अनेक जिलों में गोदावरी के पानी की प्रतीक्षा की जाती थी.

किंतु कोरोना महामारी के बाद से स्थितियां बदल गई हैं. पर्यावरण में आए बदलाव से अनेक सूखे इलाकों की पुरानी नदियां बहने लगी हैं. इससे कुछ छिछले इलाकों से पानी आस-पास फैलने लगा है. इस स्थिति में यदि पुरानी और बड़ी नदियों में बहाव बढ़ेगा तो उनके आस-पास के परिसर में समस्याएं पैदा होंगी. मराठवाड़ा और विदर्भ के अनेक इलाकों में कुछ ऐसा ही हो रहा है.

बरसात अपने औसत से बढ़ रही है. पानी को समाने और समेटने के स्थान छोटे हो रहे हैं. नतीजतन बाढ़ का प्रकोप लगातार बढ़ रहा है. स्थानीय क्षेत्र की वर्षा और बहकर आने वाला पानी, दोनों स्थितियां खराब कर रहे हैं. पिछले कई सालों से दिखने वाला नया परिदृश्य अब चिंताओं को जन्म दे रहा है.

मुंबई की समस्या यदि शहरीकरण की मान ली जाए तो बाकी इलाकों की दिक्कतों को उपेक्षा की उपज मानने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए. एक तरफ बरसात का पानी सिमटता नहीं है और गर्मी आते ही जलसंकट आरंभ हो जाता है. दोनों स्थितियों के बीच संतुलन बनाने के प्रयास न के बराबर हैं.

दूसरी ओर जालना जिले की अंबड़ तहसील के अंतरवाली सराटी से आरंभ मराठा आरक्षण आंदोलन एक बार फिर निर्णायक मोड़ की ओर बढ़ चुका है. दूसरी बार मुंबई की दहलीज पर पहुंचे आंदोलनकारी पहले से अधिक परिपक्व होकर राज्य सरकार का सामना करने के लिए तैयार हैं. हजारों की संख्या में मराठा समाज जन के पहुंचने के साथ उनके नेता मरोज जरांगे का आमरण अनशन आरंभ हो चुका है.

राज्य सरकार का कहना है कि मराठा समाज को पहले ही 10 फीसदी आरक्षण दिया है. जिसे अदालत से मंजूरी भी मिल चुकी है, जबकि आंदोलनकारी मराठा समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. सरकार का कहना है कि ओबीसी श्रेणी में पहले से करीब 350 जातियां आती हैं. फिर भी सरकार आंदोलनकारियों से बातचीत के रास्ते खोल रही है.

सवाल यह है कि जब मुंबई में हजारों लोग पहुंच गए, तब बातचीत के मार्गों की तलाश आरंभ हुई है. आंदोलन के नेता जरांगे ने अनेक बार चेतावनी दी थी कि वह मुंबई पहुंचकर आंदोलन करेंगे. उनके बयान पर अदालत ने भी आंदोलन के लिए मुंबई पहुंचने पर आपत्ति जताई थी. किंतु सशर्त प्रदेश की राजधानी में पहुंचने की अनुमति मिलने के साथ आंदोलन आरंभ हो चुका है.

पहले ही दिन बड़ी संख्या में पहुंचे लोगों का महानगर पर प्रभाव दिखने लगा है. शांतिपूर्वक आंदोलन के बावजूद मुंबई की व्यवस्था प्रभावित हुई है. स्पष्ट है कि समूचे आंदोलन को हल्के में लेने का खामियाजा राज्य की जनता को उठाना पड़ रहा है. अब सवाल यही है कि कहीं जल तो कहीं जन सैलाब राज्य सरकार के समक्ष संकट बनकर उभर चुके हैं.

दोनों ही अचानक और अप्रत्याशित ढंग से सामने नहीं आए हैं. फिर कहीं व्यवस्था की कमजोरी और कहीं राजनीतिक असफलता साफ तौर पर सच्चाई को बयान करते दिख रहे हैं. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य चंद्रशेखर बावनकुले, राधाकिशन विखे पाटिल आंदोलनकारियों से संवाद करने की ओर अग्रसर हैं.

चरम स्थिति में सभी स्थानों पर समाधान में समय लगता ही है. लिहाजा इस बार राह आसान नहीं है. राज्य सरकार अपने समक्ष चुनौतियों के प्रति गंभीर नहीं होने से समस्याओं का सामना करने के लिए स्वयं मजबूर है. राजनीति के पैंतरों से अलग जमीनी और आसमानी संकट सिर पर एक साथ मंडरा सकते हैं.

उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. अच्छे बहुमत के साथ बनी सरकार के लिए राजनीति के अलावा जमीनी मुद्दों से मुकाबला करना भी जरूरी होता है. यदि ऐसा नहीं किया तो विपक्ष की हवा चिंगारियों को सुलगा सकती है, जिसे बुझाना आसान नहीं हो सकता है. इसलिए समस्याओं को शोला बनने से रोकना आवश्यक है.  

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