लोगों का उत्साह तो चरम पर था लेकिन व्यवस्था संभालने वालों के दिल की धड़कनें बढ़ी हुई थीं. फिर भी जैसे-जैसे सब कुछ सुचारु ढंग से संपन्न हो रहा था, उनके मन में भी कहीं आश्वस्ति का भाव आता जा रहा था. 13 जनवरी से आरंभ कुंभ मेले में 16 दिनों के भीतर ही कई करोड़ श्रद्धालु पवित्र स्नान कर चुके थे, लेकिन असली चुनौती 29 जनवरी की थी. मौनी अमावस्या के दिन आठ से दस करोड़ श्रद्धालुओं के अमृत स्नान करने की आशा थी.
यह आशा उस समय आशंका में तब्दील होने लगी, जब रात एक-डेढ़ बजे के करीब संगम तट पर भीड़ का सैलाब उमड़ा और राह में सोये लोगों या लड़खड़ाने वालों को फिर संभलने का मौका नहीं मिला. ऐसा नहीं कि इस तरह के हादसे की आशंका ही नहीं थी. मेला क्षेत्र के कमिश्नर विजय विश्वास पंत खुद रात दस-ग्यारह बजे से ही घूम-घूम कर लोगों से अनुरोध कर रहे थे कि अमावस्या आठ बजे से ही लग चुकी है, मुहूर्त आरंभ हो चुका है, इसलिए जो लोग पधार चुके हैं, वे स्नान कर लें, क्योंकि बाद में लोगों का हुजूम उमड़ने पर भगदड़ मचने की आशंका है. लेकिन किसी ने भी उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया.
जिसको जहां जगह मिली, वहीं चादर बिछाकर सोता रहा. नतीजतन आधी रात के बाद जब जनसैलाब उमड़ा तो किसी भी बैरिकेडिंग के रोके नहीं रुका. 1954 के कुंभ में भी भगदड़ मची थी और सैकड़ों लोग कुचले गए थे. कहते हैं तब पं. जवाहरलाल नेहरू के मेला क्षेत्र में आने से अव्यवस्था फैली थी और संभवत: तभी से शाही स्नान के दिन किसी भी वीआईपी के आने पर रोक लगा दी गई थी.
भारी भीड़ में भगदड़ मचना कोई नई बात नहीं है. लाखों की भीड़ में ही सुरक्षा-व्यवस्था संभालने वालों के हाथ-पांव फूलने लगते हैं, फिर यहां तो करोड़ों लोगों को संभालने का सवाल था, एक-दो करोड़ नहीं बल्कि आठ-दस करोड़ लोगों को. काम आसान तो बिल्कुल भी नहीं था और यह भी नहीं कह सकते कि व्यवस्था संभालने वाले कोई कोताही बरत रहे थे (मेला क्षेत्र के कमिश्नर का वायरल वीडियो इसका गवाह है). हालांकि भगदड़ के बाद कुछ श्रद्धालुओं का कहना था कि मदद पहुंचने में काफी देर हुई थी.
निश्चय ही ऐसी परिस्थिति की पहले से ही कल्पना करके उससे त्वरित ढंग से निपटने की तैयारी प्रशासन को रखनी चाहिए थी. भगदड़ में घायल अपने बच्चे का इलाज करा रही एक महिला का तो कहना था कि धक्कामुक्की करते हुए कुछ लोग हंस रहे थे जबकि हम उनसे बच्चों पर रहम करने की भीख मांग रहे थे. पवित्र स्नान के लिए देश भर से जुटे लोगों में उत्साह तो बहुत था, लेकिन जिम्मेदारी का एहसास शायद बिल्कुल नहीं था!
कहते हैं भीड़ में कुचले जाने वाले लोग मदद की गुहार लगाते रहे लेकिन कोई किसी की मदद के लिए तैयार नहीं था! जबकि मानवता तो किसी भी धर्म की पहली सीढ़ी होती है. प्रशासन बहुत कुछ कर सकता है लेकिन सबकुछ नहीं कर सकता. आठ-दस करोड़ की भीड़ को संभालने के लिए बेशक अनुशासन की जरूरत होती है लेकिन आत्मानुशासन की भी कम जरूरत नहीं होती.
जोश बड़े काम की चीज है लेकिन होश खोने से वह नुकसानदेह भी हो जाता है. करोड़ों-करोड़ लोगों का एक जगह जुटना दिखाता है कि हमारे भीतर जोश की कोई कमी नहीं है. इस उत्साह को अगर हम आत्मानुशासन मेें बांध सकें, तभी शायद भगदड़ जैसी घटनाओं से बचा जा सकता है.