Lok Sabha Elections 2024: मुझे लगता है कि किसान आंदोलन का दूसरा उभार दिल्ली की सीमाओं पर लगाए गए कंक्रीट और कंटीले तारों के बेरिकेडों की अभेद्यता के समान मजबूर हो चुका है. अगर किसान दिल्ली में नहीं घुस पाएंगे तो केंद्र सरकार पर कोई दबाव पैदा नहीं होगा. इसलिए पूरी संभावना है कि वार्ता के तीसरे-चौथे दौरों के बाद कोई बीच का रास्ता निकल आएगा जिनके तहत किसानों की वापसी हो जाएगी. मुझे यह भी लगता है कि चुनावी बाॅन्डों की स्कीम को गैरसंवैधानिक ठहराये जाने से एक बहस जरूर पैदा हुई है, लेकिन उससे केंद्र सरकार पर कोई संकट नहीं आया है.दरअसल संकट में सरकार नहीं बल्कि कांग्रेस है. क्या साठ साल तक सत्ता में रहने वाली केवल दस साल के भीतर ही इस दुर्गति तक पहुंचनी चाहिए? कांग्रेस की इस बुरी हालत के कई कारण हैं.
भाजपा और संघ परिवार द्वारा राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से बदल देना इसका एक प्रमुख कारण है. साठ के दशक से ही धीरे-धीरे विभिन्न समुदायों को एक-एक करके कांग्रेस का साथ छोड़ते देखना भी इसका एक कारण है. क्षेत्रीय ताकतों के उदय के कारण कांग्रेस के प्रभाव-क्षेत्र का सिकुड़ते जाना इसका अन्य कारण है.
लेकिन, मैं समझता हूं कि इनके साथ-साथ और इन सबसे ऊपर कांग्रेस के तेज पराभव का सबसे बड़ा कारण है नेतृत्व की कमजोरी और विफलता. दृष्टिहीनता, रणनीतिहीनता, नए तत्वों के समावेश में नाकामी, संगठन के कामकाज को गंभीरता से न लेना, एक परिवार के सदस्यों की कथित प्रतिभा पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करना, ये हैं कुछ समस्याएं जिनका कांग्रेस सामना कर रही है.
पार्टी के पास कोई भी दूरगामी नजरिया नहीं है. सोनिया गांधी तो 2004 में पार्टी को ‘एकला चलो रे’ से निकाल कर गठजोड़ युग में ले जा कर अपनी नेतृत्व-क्षमता साबित कर चुकी हैं. लेकिन, उनकी दोनों संतानों ने बार-बार स्वयं को राजनीतिक क्षमता से वंचित साबित किया है.
राहुल और प्रियंका के मुकाबले अगर तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, स्टालिन और जनगमोहन रेड्डी जैसे नेताओं को देखा जाए तो वे अधिक कुशल प्रतीत होते हैं. इसी तरह कांग्रेस में भी रेवंत रेड्डी जैसे युवा नेतृत्व का उभार हुआ है. नए अध्यक्ष (जो अब इतने नए भी नहीं रहे) मल्लिकार्जुन खड़गे के आने से लगा था कि पार्टी में अब शिकायतें सुनी जाने लगेंगी.
लेकिन, खड़गे को खुले हाथ से काम नहीं करने दिया गया. ऐसा भी लगता है कि पार्टी के भीतर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के दो गुट काम करते हैं, और दोनों के बीच तनाव भी है. पिछले दो साल में बहुत बड़े-बड़े पचास से ज्यादा नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है. इनमें से ज्यादातर भाजपा में गए हैं और वहां महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं.