क्या कभी अपने यह सोचा है कि यदि जिंदगी में त्यौहार न होते, उत्सव न होता तो फिर क्या होता? हकीकत तो यह है कि हमारी जिंदगी मे यदि उत्सव और त्यौहार न होते तो जिंदगी पूरी तरह नीरस होती और हमारे विकास की जो अवधारणा है, वह भी कहीं न कहीं बाधित हुई होती! तो यह सवाल लाजिमी है कि उत्सव का हमारी जिंदगी में पदार्पण कैसे हुआ? इतिहास के पन्ने पलटने पर हमें कुछ दृष्टांत मिलते हैं. जैसे कि प्रभु श्रीराम ने अहंकारी रावण का वध किया तो अनाचार से मुक्ति के रूप में दशहरा पर्व जीवन में आया.
इसी तरह प्रभु श्री राम विजयी होकर अयोध्या लौटे तो पूरी अयोध्या को दीपों से सजाया गया और हमारी जिंदगी में दिवाली आई. इसी तरह से अमूमन हर त्यौहार के लिए कोई न कोई प्रसंग हमारे पास है लेकिन इसके मूल में यह सत्य समाहित है कि ये सारे पर्व त्यौहार वास्तव में हमारी खुशियों की अभिव्यक्ति हैं. तो ये खुशियां क्या हैं और कहां से आती हैं? खुशियों का विश्लेषण करें तो एक बात समझ में आती है कि कुछ भी प्रकृति से परे नहीं है.
प्रकृति ने ही हमारे भीतर, बल्कि यूं कहें कि हर जीवन के भीतर ढेर सारे भाव भरे हैं. दर्द और पीड़ा एक पक्ष है तो खुशियों में सरोबोर हो जाना दूसरा पक्ष है. एक मां नौ महीने कोख में संभालने के बाद जब बच्चे को अपने सीने से चिपकाती है तो खुशी का वह क्षण किसी भी उत्सव से बड़ा होता है. किसी मां से पूछिए तो वह बताएगी कि ऐसे उत्सव पर सारे पर्व त्यौहार न्यौछावर हैं.
इसका मतलब है कि मां के भीतर जो उत्सव की अभिव्यक्ति हुई वह किसी महिला के जेहन का हिस्सा है. क्या किसी बच्चे को किसी लकड़ी या लोहे के टुकड़े से आपने पहिया घुमाते हुए देखा है? उस पल उसके चेहरे पर खुशी का जो भाव होता है, उस पर गौर करने की कोशिश कीजिए तो आपको प्रफुल्लता के शिखर पर नजर आएगा. बहुत लोगों के पास महंगी गाड़ियां होती हैं, तब भी उनके चेहरे पर वो प्रफुल्लता नहीं दिखती जो उस बच्चे के चेहरे पर आप देखते हैं. तो इसका कारण क्या है? इसका सबसे बड़ा कारण है कि वह बच्चा उस छोटी खुशी को भी, उस पल अपने लिए बड़ी खुशी के रूप में स्वीकार करता है.
प्रकृति का भाव भी यही हैै. आज परिस्थितियां बदलती चली गई हैं. बल्कि अब तो तेजी से बदल रही हैं. सुख-सुविधाओं की कमी नहीं है, फिर भी खुशियों का अभाव नजर आता है. दिवाली पर आप पटाखे फोड़ लेते हैं, खुशियों का इजहार करना चाहते हैं लेकिन केवल पटाखे फोड़ना खुशियों का इजहार नहीं है. बल्कि खुशियां तो वो हैं जो एक-दूसरे से बांटी जाएं. हम खुश हैं तो दूसरे भी खुश रहें का भाव यदि जिंदगी में आ जाए तो सच मानिए कि हर ओर खुशियां ही खुशियां होंगी.
मगर हमारे भीतर वैमनस्यता इस कदर हावी हो चुकी है कि हम इसी बात से परेशान रहते हैं कि दूसरा खुश क्यों हैं? हम इस बात को नहीं समझ पाते कि यदि हमारा पड़ोसी दुखी रहेगा तो हम कैसे खुश रह सकते हैं. इसीलिए हमारी सांस्कृतिक परंपरा में तोहफे देने की शुरुआत हुई होगी. जिसके पास ज्यादा है, वह उन्हें तोहफा दे जिसे जरूरत है. लेकिन अब तो तोहफे भी उन्हें दिए जाते हैं जिनका भंडार पहले से ही भरा पड़ा है. तोहफे जरूरत पूरी करने के नहीं बल्कि एक-दूसरे से रिश्ते के रूप में देखे जाने लगे हैं.
रिश्ते बनाना अच्छी बात है लेकिन उसके भी मायने तो होने चाहिए. दरअसल मैं खुशियों की बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इस बार अक्तूबर का महीना कई सारे त्यौहार साथ लेकर आया. आप सभी को त्यौहार मुबारक. ध्यान रखिए कि त्यौहार का असली मकसद खुशियां बांटना है. दिवाली का असल मकसद अंधेरे को उजाले से भर देना है. इसलिए संकल्प लीजिए कि हम खुद तो खुश रहेंगे ही, जमाने भर को खुशियां बांटेंगे.