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जयंती विशेषः  युग प्रवर्तक बोधिसत्व बाबासाहब आंबेडकर, प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल का ब्लॉग

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: April 14, 2020 19:20 IST

हिंदू धर्म से बाहर जाने की उनकी उद्घोषणा को उस कालखंड के लोग निरीश्वरवाद, भौतिकवाद, मार्क्‍सवाद का अनुसरण न समङों, इसको लेकर बाबासाहब अत्यंत सचेत हैं. मुसलमान और ईसाई धर्म संस्थाओं को हिंदू धर्म की जन्माधारित श्रेष्ठता की मान्यता में लगभग समान स्थिति में पाते हुए उस ओर जाना भी उन्होंने मुनासिब न समझा.

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ठळक मुद्दे बाबासाहब एक ऐसे धर्म धम्म की तलाश में थे जो उन्हें भारत भूमि से जोड़े रखे और हिंदू धर्म की जड़बद्ध बुराइयों से मुक्त हो. बुद्ध के बाद अनीश्वरवाद, अनात्मवाद के सिद्धांतों पर आधारित युक्तिसम्मत, नैतिक धर्म व्यवस्था के महान शास्ता के रूप में स्थापित करती है.

बोधिसत्व बाबासाहब आंबेडकर संपूर्ण विश्वपटल पर बीसवीं शताब्दी के अग्रगण्य संविधानवेत्ता, समाज सुधारक, समाजशास्त्नी और राजनीतिज्ञ के रूप में इतिहास द्वारा स्वीकृत हैं.

लेकिन बाबासाहब की एक विशिष्ट परिचिति बीसवीं शताब्दी में सधम्म के शास्ता (प्रवर्तक) के रूप में भी है. भारतीय स्वाधीनता संग्राम के कालखंड में जब व्यापक हिंदी समाज जन्माधारित श्रेष्ठता और हीनता के अतार्किक, अमानवीय और अस्वीकार्य भेद के बीच एक राष्ट्र और एक जन बनने के लिए संघर्ष कर रहा था तब बाबासाहब ने इस देश के लिए, देश के दलितों, वंचितों, उपेक्षितों के लिए धार्मिक और दार्शनिक आधार की तलाश प्रारंभ की.

इस उद्घोषणा के साथ प्रारंभ की कि मैं हिंदू जरूर जन्मा हूं किंतु हिंदू मरूंगा नहीं. यहां विशेष रूप से ध्यातव्य है कि बाबासाहब हिंदू धर्म के बाहर आने के बाद भी धर्मविहीन जीवन को स्वीकृति नहीं प्रदान करते हैं बल्किधर्म को मनुष्य के अपरिहार्य जीवन व्यवहार के रूप में प्रतिपादित करते हैं. 

हिंदू धर्म से बाहर जाने की उनकी उद्घोषणा को उस कालखंड के लोग निरीश्वरवाद, भौतिकवाद, मार्क्‍सवाद का अनुसरण न समङों, इसको लेकर बाबासाहब अत्यंत सचेत हैं. मुसलमान और ईसाई धर्म संस्थाओं को हिंदू धर्म की जन्माधारित श्रेष्ठता की मान्यता में लगभग समान स्थिति में पाते हुए उस ओर जाना भी उन्होंने मुनासिब न समझा.

यहां तक कि सिखों में भी छिपी जातीयता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी इसलिए बाबासाहब एक ऐसे धर्म धम्म की तलाश में थे जो उन्हें भारत भूमि से जोड़े रखे और हिंदू धर्म की जड़बद्ध बुराइयों से मुक्त हो. बाबासाहब इसलिए कुशीनारा के खंडहरों से प्रेरणा लेकर संघ की दीक्षा स्वीकार करते हैं और बाबासाहब के द्वारा की गई यह स्वीकृति उन्हें शास्ता बुद्ध के बाद अनीश्वरवाद, अनात्मवाद के सिद्धांतों पर आधारित युक्तिसम्मत, नैतिक धर्म व्यवस्था के महान शास्ता के रूप में स्थापित करती है.

वस्तुत: बाबासाहब धम्म को नैतिक व्यवस्था के रूप में मानते हैं. वे साफ कहते हैं कि यदि नैतिकता नहीं है तो धर्म नहीं है. नैतिकता के आधार पर ही समानता, स्वतंत्नता, बंधुता के वैश्विक मूल्यों की उपलब्धि हो सकती है. वे यह भी याद दिलाते हैं कि आज पूरे विश्व में व्याप्त साम्यवाद भी अनीश्वरवाद, अनात्मवाद पर आधारित विचार है लेकिन यह धर्म का विकल्प नहीं है अपितु धर्म के विरुद्ध एक राज व्यवस्था है जो नैतिकता और आत्मस्वीकृति पर नहीं, शासन और जोर-जबरदस्ती पर आधारित है जिसमें स्वतंत्नता के लिए कोई स्थान नहीं बचता है.

बाबासाहब के लिए स्वतंत्नता सर्वोच्च मूल्य है. उसे इस रूप में समझा जा सकता है कि धर्म में यदि स्वतंत्नता नहीं है तो वह धर्म नहीं है. संविधान में यदि स्वतंत्नता नहीं है तो वह संविधान नहीं है. बाबासाहब के लिए स्वतंत्नता का एक विशिष्ट अर्थ है. यह पाने की नहीं, चुनने की स्वतंत्नता है. अपने विवेक से चुनकर पाने के यत्न की स्वतंत्नता है और अपने यत्न से जो प्राप्त है, उसके रक्षण की स्वतंत्नता है. शिक्षा, संगठन और संघर्ष का जो त्रिरत्न बाबासाहब ने प्रतिपादित किया था वह इसी स्वतंत्नता पर आधारित है.

चुनने की स्वतंत्नता अर्थात जो शिक्षित है जो शुभ-अशुभ का भेद कर सकता है, हेय और उपादेय की पहचान कर सकता है, वही शुभ, कल्याणकारी, नैतिक को चुन सकता है. जो कल्याणकारी है उसको संगृहित करना, कल्याण की दिशा में चल रहे लोगों को एकसूत्नता देना और इससे विपरीत अधर्म, अनैतिकता और अकल्याण पर आधारित शक्ति के पाथ्र्यक्करण पर आधारित व्यवस्थाओं को चुनौती देने वाला समूह खड़ा करना ही संगठन है और निरंतर इस प्रकार से समता और बंधुता के धर्म का विस्तार करना संघर्ष है.

यदि संघर्ष का साम्यवादी तरीका बाबासाहब को मंजूर होता तो उस काल के प्रभावी साम्यवादी आंदोलन का हिस्सा बन करके बड़ी आसानी से विश्व के अग्रगण्य राजनेताओं में वे शुमार हो सकते थे लेकिन बाबासाहब का लक्ष्य स्वयं के लिए सिंहासन अर्जित करना नहीं था अपितु वे अपने वंचित बंधुओं के कल्याण, उनको दु:खों से मुक्ति और समानता के धरातल पर स्थित कराने के यत्न, देश के एकीकरण, सुदृढ़ संविधान पर उसकी निर्मिति और संपूर्ण विश्व की मानवता को भूख-भय और हिंसा के दारुण दु:ख से मुक्ति दिलाने को जीवन लक्ष्य मानकर निर्वाण की प्राप्ति तक संघर्षरत रहे.

इसीलिए उन्हें बुद्ध का रास्ता प्रिय था. बुद्ध का रास्ता दु:खों के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए दु:ख के अत्यधिक निर्मूलन का रास्ता है. बुद्ध का पथ दो प्रकार की अतियों के निषेध का पथ है. बुद्ध के कालखंड में यह शाश्वतवाद और उच्छेदवाद था तो बाबासाहब के समय में यह जातीय ब्राह्मणवाद और भौतिक साम्यवाद था.

इन दोनों से बराबर दूरी रख वे साम्व्यावहारिक मध्यमार्ग को अपनाते हैं. यही कारण है कि भारत का संविधान एक मध्यमार्गी संवैधानिक व्यवस्था है जिसमें आधुनिकता, सभ्यता और प्राचीनतम मूल्यदृष्टि, सबको न्याय और सबके लिए अनुशासन की विशिष्ट व्यवस्था का विधान है.

बाबासाहब लंबे समय तक इसलिए भी याद किए जाएंगे कि उन्होंने भारत की ऐतिहासिक एकता और भारतीयजन की एक जातीयता का युक्तियुक्त और अकाट्य तर्क के आधार पर प्रतिपादन किया और यह भ्रांति निर्मूल की कि कारवां आता गया, हिंदुस्तान बसता गया. 1916 से लेकर 1952 तक बाबासाहब ने अपने लेखन, व्याख्यानों और संविधान में दी गई व्यवस्थाओं में इसका सफल निरूपण भी किया है.

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