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ब्लॉग: एक राष्ट्र, एक चुनाव की संकल्पना पर आगे बढ़ना जरूरी

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: September 20, 2024 10:20 IST

लोकसभा में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार के पास दो-तिहाई बहुमत नहीं है. अत: संविधान संशोधन करवाने के लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ेगी.

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ठळक मुद्देकोविंद समिति की रिपोर्ट को जैसे ही मोदी सरकार ने मंजूर किया, विपक्ष के तेवर आक्रामक हो गए. भाजपा के लिए राहत की बात यह रही कि एक राष्ट्र, एक चुनाव के प्रस्ताव का समर्थन सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल सभी दलों ने किया.वक्फ बोर्ड और जातिगत जनगणना के मसले पर जद (यू), तेदेपा तथा लोजपा के सुर सरकार के रुख से अलग लग रहे थे. 

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद समिति की एक राष्ट्र, एक चुनाव की सिफारिश को बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में हरी झंडी मिल गई. इसका मतलब यह नहीं कि देश में आनन-फानन में सभी राज्य विधानसभाओं और हाल ही में निर्वाचित लोकसभा को भंग कर इन सबके चुनाव एक साथ करवाए जाएंगे. एक राष्ट्र, एक चुनाव की संकल्पना को साकार करने की दिशा में मोदी सरकार ने पहला कदम उठाया है. 

इस सिफारिश को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा और विपक्ष को विश्वास में लेकर आम सहमति बनानी होगी. लोकसभा में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार के पास दो-तिहाई बहुमत नहीं है. अत: संविधान संशोधन करवाने के लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. कोविंद समिति की रिपोर्ट को जैसे ही मोदी सरकार ने मंजूर किया, विपक्ष के तेवर आक्रामक हो गए. 

भाजपा के लिए राहत की बात यह रही कि एक राष्ट्र, एक चुनाव के प्रस्ताव का समर्थन सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल सभी दलों ने किया. गठबंधन के दो महत्वपूर्ण घटक दलों जद (यू) तथा तेलुगू देशम पार्टी ने भी कोविंद समिति की सिफारिश का समर्थन किया. चिराग पासवान की लोजपा भी प्रस्ताव के पक्ष में खड़ी नजर आई. वक्फ बोर्ड और जातिगत जनगणना के मसले पर जद (यू), तेदेपा तथा लोजपा के सुर सरकार के रुख से अलग लग रहे थे. 

ऐसे में आशंका थी कि एक राष्ट्र, एक चुनाव के मसले पर भी ये तीनों दल विरोध के स्वर न दर्ज करवा दें. मोदी सरकार के लिए इन तीनों ही पार्टियों का समर्थन बेहद अहम है. दूसरी ओर एक राष्ट्र, एक चुनाव को लेकर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ भी पूरी तरह एकजुट दिखाई दे रहा है. लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों में ‘इंडिया’ गठबंधन कमजोर नहीं है. 

बीजू जनता दल के लोकसभा में भले ही एक भी सदस्य न हों लेकिन राज्यसभा में एक साथ चुनाव का बिल आने पर वह विपक्ष के साथ खड़ा नजर आ सकता है. एक राष्ट्र, एक चुनाव की संकल्पना के विरोध का तर्क समझ में नहीं आता. कांग्रेस इस विरोध का नेतृत्व कर रही है. 1952 से लेकर 1967 तक कांग्रेस के शासनकाल में ही लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे. 

उन पंद्रह वर्षों में एक साथ चुनाव करवाने में कोई संवैधानिक या प्रशासनिक अड़चन पैदा नहीं हुई और न ही कानून व्यवस्था को लेकर समस्या पैदा हुई. एक साथ चुनावों ने ही लोकतंत्र की जड़ें मजबूत कीं और दुनिया के सामने भारत की छवि निखरी. इतने विशाल देश में, मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या के साथ संसदीय एवं विधानसभा चुनाव एक साथ करवाना आसान काम नहीं था लेकिन भारत ने 1952 से 1967 तक लगातार ऐसा कर दिखाया. 

1967 के बाद देश में दुर्भाग्य से राज्यों में गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ. राज्य सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे. नब्बे के दशक से 1999 तक केंद्र में भी अस्थिरता रही. चरण सिंह, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल, विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा एच.डी. देवगौड़ा की सरकारें अल्पजीवी रहीं. 

1996 तथा 1998 में भाजपा के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकारें भी ज्यादा नहीं चलीं और लोकसभा के भी चुनाव समय पूर्व करवाने पड़े. इन सब कारणों से लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने की परिपाटी खंडित हो गई. आज हालत यह है कि हर वर्ष देश के किसी न किसी हिस्से में कुछ विधानसभाओं के चुनाव होते हैं. इससे धन, श्रम और समय का अपव्यय होने के साथ-साथ विकास की प्रक्रिया भी बाधित होती है. 

हर वर्ष देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव के कारण आचार संहिता लागू हो जाती है और विकास के सारे काम रोक देने पड़ते हैं. विपक्ष के इस तर्क में कोई दम नहीं है कि देश में एक राष्ट्र एक चुनाव से संघीय ढांचा कमजोर होगा, लोकतंत्र की जड़ें भी कमजोर होंगी और संविधान की मूल भावना पर आघात होगा. 

जब देश में एक साथ चुनाव होते थे, तब लोकतंत्र मजबूत हुआ, संघीय ढांचे को ताकत मिली और हर राजनीतिक दल ने उसमें उत्साह से भाग लिया, तो अब सबकुछ गलत कैसे हो जाएगा. देश के हित में एक राष्ट्र, एक चुनाव अत्यंत आवश्यक है तथा विपक्ष को इस कार्य में सरकार के साथ सहयोग करना चाहिए.

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