सत्ताइस साल की उम्र में मयूरी पंधरे ने आत्महत्या कर ली. आप उन्हें नहीं जानते क्योंकि मयूरी बिल्कुल ही निम्न मध्यमवर्गीय या यूं कहें कि काफी हद तक गरीब परिवार की महिला थीं. पति किसी रोग से ग्रस्त थे और पीठ दर्द की असह्य पीड़ा से गुजर रहे थे. किसी भी पत्नी के लिए अपने पति को इस हाल में देखना असह्य ही होगा. मयूरी के घर में जो कुछ भी पैसे थे, वे दर्द के उपचार में समाप्त हो चुके थे. एक बार फिर दर्द उठा तो मयूरी अपने पति विकास को लेकर अस्पताल पहुंचीं. डॉक्टर ने कहा कि भर्ती करना पड़ेगा. विकास भर्ती तो हो गए लेकिन मयूरी के सामने समस्या यह थी कि अस्पताल का जो बिल आएगा, उसे कैसे चुकाएगी. बस इसी चिंता में उसने अस्पताल में ही फांसी लगा ली.
गरीबी से गुजर रहे परिवारों में हालात कई बार ऐसे बन जाते हैं कि मौत सरल विकल्प दिखने लगता है. कर्ज से जूझ रहे किसानों की आत्महत्या भी इसी तरह की सोच का परिणाम है. हम सभी जानते हैं कि मौत किसी समस्या का समाधान नहीं है. हम सभी को परिस्थितियों से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए. हालात कितने भी कठिन क्यों न हों, मौत उसका विकल्प नहीं हो सकता है. लेकिन मयूरी के सामने सवाल यही रहा होगा कि वो पति का उपचार कैसे कराएगी?
यहां एक सवाल पैदा होता है कि मयूरी की मौत के लिए क्या केवल गरीबी ही जिम्मेदार है? सतही तौर पर ऐसा कहा जा सकता है लेकिन हमारे देश में जो हालात हैं, उनका विश्लेषण करें तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस मौत के लिए काफी हद तक हमारी व्यवस्था भी जिम्मेदार है. स्वास्थ्य एक बुनियादी जरूरत है, यह लग्जरी नहीं है, इसलिए व्यवस्था की यह जिम्मेदारी बनती है कि हर किसी के लिए स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हों. कहने को ऐसा है भी! सरकार दावा कर सकती है कि हर जिले, हर प्रखंड और छोटी-छोटी जगहों पर भी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं मौजूद हैं. लेकिन सवाल यह है कि उन बुनियादी सेवाओं की गुणवत्ता क्या है?
गंभीर स्थिति में कोई भी मरीज निजी अस्पतालों की ओर रुख क्यों करता है? क्योंकि उसे सरकारी अस्पताल पर भरोसा नहीं है. यह भरोसा इसलिए टूटा है क्योंकि सरकारी अस्पतालों में ठीक से न जांच की सुविधाएं हैं और न ही दवाइयों की उपलब्धता है. दावे बहुत बड़े-बड़े किए जाते हैं लेकिन हकीकत से हम सब वाकिफ हैं. सरकार ने गरीबों के लिए योजनाएं भी बहुत सी बना रखी हैं, इसके बावजूद यदि मयूरी ने मौत को गले लगाया तो व्यवस्था के लिए यह आत्मचिंतन की बात है. बल्कि शर्मिंदगी की भी बात है. और यह शर्मिंदगी रह-रह कर सामने भी आती है.
कहीं कोई पति अपनी पत्नी की लाश को साइकिल पर लाद कर घर ले जाने को मजबूर होता है तो कहीं किसी बेसहारा महिला को सरकारी राशन इसलिए नहीं मिल पाता है कि उसके पास आधार कार्ड नहीं है. और एक दिन वो महिला भूख से मर जाती है. हमारे भारत जैसे देश के लिए यह ज्यादा शर्मिंदगी की बात इसलिए है क्योंकि हमारे पास साधन है लेकिन उसका सदुपयोग नहीं हो पा रहा है.
यदि हम 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त में अनाज वितरण की सुविधा जुटा सकते हैं तो उनके लिए स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं भी जुटा सकते हैं. इसमें जनप्रतिनिधियों की भूमिका महत्वपूर्ण है. मयूरी जिस गांव की या जिस कस्बे की रही होगी, वहां के जनप्रतिनिधि की क्या यह जिम्मेदारी नहीं थी कि विकास को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें! कुछ लोग कह सकते हैं कि मयूरी सहायता के लिए क्या किसी जनप्रतिनिधि के पास पहुंची?
इस सवाल का जवाब तलाशा जा सकता है लेकिन यदि वो नहीं पहुंची तो इसका मतलब है कि उस इलाके के जनप्रतिनिधि ने अपने लोगों के बीच यह विश्वास पैदा नहीं किया कि संकट के समय लोग उसके पास आएं. निश्चित रूप से गरीबी तो एक अभिशाप है ही, व्यवस्था की कमजोरियां भी लोगों के लिए अभिशाप साबित हो रही हैं. इस पर हम सभी को मंथन करना चाहिए ताकि किसी मयूरी को आत्महत्या जैसा कदम उठाने की जरूरत ही न पड़े.