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फिरदौस मिर्जा का ब्लॉग : अदालतों में लंबित मामलों का बढ़ना चिंताजनक

By फिरदौस मिर्जा | Updated: August 21, 2021 08:45 IST

कानून की अदालतों में, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या आजकल चर्चा का विषय

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ठळक मुद्देकानून की अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या आजकल चर्चा का विषयआम आदमी का इंसाफ के लिए इंतजार कठिन होता जा रहा हैलंबित मामलों का बढ़ना खतरनाक है

भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की पहचान ‘संविधान के संरक्षक’ के रूप में है. दुनिया में बहुत कम न्यायालयों के पास ऐसी शक्तियां हैं. हमारे न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हुए विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं, उनके पास सभी सरकारी नीतियों और कार्यो की न्यायिक समीक्षा की शक्ति है. नागरिक इन न्यायालयों को उत्पीड़न के खिलाफ अपने रक्षक के रूप में देखते हैं. डॉ. आंबेडकर के अनुसार अनुच्छेद-32, जो सर्वोच्च न्यायालय को शक्ति प्रदान करता है, वह संविधान की आत्मा और हृदय है.

न्यायालय का मूल कार्य पक्षों के बीच कानूनी विवादों का निर्णय करना और कानून के अनुसार न्याय प्रदान करना है. इसकी भूमिका उन विवादित मामलों के निराकरण की है जो इसके सामने लाए जाते हैं, वे व्यक्तियों के बीच या राज्य के खिलाफ हो सकते हैं. न्याय करने के लिए, स्वतंत्रता की गारंटी देने के लिए, सामाजिक व्यवस्था को सुधारने, विवादों को सुलझाने के लिए न्यायालय मौजूद हैं.

कानून की अदालतों में, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या आजकल चर्चा का विषय है. वास्तव में, यह चिंता का कारण है. आम आदमी का इंसाफ के लिए इंतजार कठिन होता जा रहा है, लंबित मामलों का बढ़ना खतरनाक है. चिंता व्यक्त करने के साथ ही हमें समस्या का विेषण करने की आवश्यकता है. यदि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों को श्रेणियों में विभाजित किया जाए तो उनमें से अधिकांश या तो रिट याचिकाएं या  एसएलपी हैं. रिट याचिकाएं हमेशा नागरिकों द्वारा सरकार या उसके अंगों द्वारा उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत करने के लिए दायर की जाती हैं. रिट याचिका दायर करने की बढ़ती प्रवृत्ति सरकार के कामकाज के प्रति आम आदमी के असंतोष का संकेत है, इसलिए लंबित मामलों की ओर इशारा करने के बजाय, सरकार को स्वयं अपने प्रदर्शन का मूल्यांकन करने और आम आदमी की शिकायतों के निवारण के लिए तंत्र तैयार करने की जरूरत है.

अनुभव से पता चलता है कि अधिकांश मामले सरकार के कुछ विभागों से संबंधित होते हैं और पहले के फैसलों के आधार पर उनका निपटारा किया जा सकता है. लेकिन संवैधानिक प्रावधान की अनदेखी करते हुए पदस्थ अधिकारी चाहते हैं कि प्रत्येक मामले का फैसला अदालत से हो. जबकि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों द्वारा किसी मामले में दिए गए फैसले को कानून की तरह माना जा सकता है और वहां के प्रशासन द्वारा इसी तरह के अन्य मामलों में लागू किया जा सकता है.

एक और चिंता का विषय है आपराधिक मामलों का निपटारा होने में लगने वाला लंबा समय. देरी के परिणामस्वरूप निदरेष को कैद में रखने और दोषियों को छूट देने का अन्याय हो जाता है. एक अन्य पहलू जिस पर चर्चा नहीं की जाती है, वह है निदरेष साबित होने की उच्च दर, जिसका अर्थ है कि ज्यादातर मामलों में पुलिस या जांच एजेंसी अपराध साबित करने में सक्षम नहीं हैं. 

यदि सरकार द्वारा साबित न किए जा सकने वाले मामलों को अदालतों में न भेजने के लिए एक उचित तंत्र बनाया जाए तो इससे लंबित मामलों की संख्या कम करने व कम अवधि में मुकदमे का फैसला कर अपराधियों को सजा देने में मदद मिलेगी.

न्यायालयों की स्थापना का मूल उद्देश्य लोगों  के बीच निजी विवादों को सुलझाना है. संविधान निर्माताओं ने इस संभावना की कल्पना नहीं की होगी कि शासन के तरीके के खिलाफ शिकायत करने के लिए स्वतंत्र भारत के नागरिक  इतनी बड़ी संख्या में अदालतों का रुख करेंगे. लंबित मुकदमे वास्तव में अपने प्रतिनिधियों और लोक सेवकों के कामकाज के प्रति नागरिकों के असंतोष को अभिव्यक्त करते हैं.

संवैधानिक न्यायालयों के समक्ष लंबित अन्य प्रकार के मामले प्रासंगिक कानूनों व नीतियों की कमी या उनका कार्यान्वयन नहीं होने के बारे में हैं. संविधान अपेक्षा करता है कि विधायिका कानून बनाएगी और कार्यपालिका उन्हें लागू करेगी. कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून की अनुपस्थिति को ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1997 में विशाखा मामले में दिशा-निर्देश जारी किए. लेकिन उस विषय पर कानून बनाने में विधायिका को 16 साल लग गए.  

2005 में, महाराष्ट्र ने स्थानांतरण को विनियमित करने और सरकारी कर्मचारियों द्वारा आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में देरी की रोकथाम के लिए एक कानून बनाया है. इस कानून में कहा गया है कि कोई भी फाइल सात कार्य दिवसों से अधिक लंबित नहीं रहेगी. लेकिन हम नागरिकों को कुशल सेवा प्रदान करने के लिए कभी भी इस कानून का कार्यान्वयन होते नहीं देखते हैं. 

केवल सरकारी कर्मचारियों द्वारा किसी पद या स्थानांतरण के अधिकार का प्रयोग करने के लिए इसका उपयोग किया जाता है. वे कर्तव्यों की अनदेखी करके अधिकारों का आनंद लेने में ही खुश रहते हैं.

मामलों के लंबित रहने की समस्या का समाधान न्यायालयों की संख्या में वृद्धि करना, न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरना, बेहतर आधारभूत संरचना प्रदान करना और आधुनिक तकनीक का उपयोग करना है. इससे अधिक मामलों के निपटारे में मदद मिल सकती है लेकिन हमें उन तरीकों की तलाश करने की जरूरत है जिससे नागरिकों को शिकायतों के साथ न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की जरूरत न पड़े. 

यदि हम चाहते हैं कि मामलों का शीघ्र निपटारा हो और न्यायालयों में लंबित मामलों को कम किया जाए तो हमारी विधायिकाओं को सक्रिय बनाना होगा और यह भी देखना होगा कि क्या लोक सेवक कानूनों और नीतियों को उनके शब्दों और भावना के अनुसार लागू करते हैं, विशेष रूप से नागरिकों की भलाई के लिए, न कि उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए. यह तभी संभव है, जब देश के प्रत्येक नागरिक में संवैधानिक नैतिकता समाहित हो.

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