नई दिल्ली: पं. जवाहरलाल नेहरू की यादों के साथ इधर एक बड़ी विडंबना जुड़ गई है : जब भी उनकी बात चलती है, उनके बड़े योगदानों, बड़ी उपलब्धियों और बड़ी विफलताओं के हवाले हो जाती है और उनके जीवन के वे छोटे प्रसंग अचर्चित रह जाते हैं, जो छोटे होने के बावजूद उनके व्यक्तित्व का बड़े प्रसंगों से कहीं ज्यादा पता देते हैं.
पं. नेहरू ने फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो को क्या हिदायत दी थी
उनके जीवन की सांध्यबेला का एक ऐसा ही छोटा प्रसंग है. बीती शताब्दी के छठे दशक में फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो के मन में महात्मा गांधी पर फिल्म बनाने का विचार आया तो वे उसे लेकर सलाह मशविरे के लिए पं. नेहरू से मिले. इस मुलाकात में नेहरू ने उन्हें बस एक ही हिदायत दी.
यह कि ‘जब भी यह फिल्म बनाना, बापू को देवता की तरह नहीं, मनुष्य की तरह ही चित्रित करना.’ कहते हैं कि बाद में एटनबरो ने ‘गांधी’ नाम से उक्त फिल्म बनाई तो उसके एक भी दृश्य में नेहरू की इस हिदायत को नहीं भुलाया. यही कारण है कि 1982 में वह प्रदर्शित हुई तो दर्शकों को ज्यादातर बापू के मनुष्य रूप का ही साक्षात्कार कराती दिखी.
प. नेहरू के कई अछूते व अनूठे मानवीय आयाम
बहरहाल, नेहरू की इस हिदायत के आईने में उनके खुद के जीवन को देखें तो उनके व्यक्तित्व के कई अछूते व अनूठे मानवीय आयाम सामने आते हैं. कह सकते हैं कि अगर कोई मनुष्य ‘देवता’ नहीं है और होना भी नहीं चाहता, तो उसके संदर्भ में यह बहुत स्वाभाविक है. खासकर जब वह ऐसा मनुष्य हो कि उसके जैसा होना भी आसान न हो. इतना ही नहीं, उसकी जड़ें न सिर्फ आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य यानी संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में ‘भारत के वास्तुकार’ अथवा निर्माता से लेकर ‘बच्चों के चाचा’ तक फैली हुई हों.
उनमें कोई झोल, दुविधा या द्वंद्व ढूंढ़े न मिलते हो और व्यक्तिगत व सार्वजनिक नैतिकताओं में भी कोई फांक न हो. दरअसल, नेहरू की सबसे बड़ी खासियत यही है कि वे अपने किसी भी रूप में किसी को ऐसी कोई छूट देते नजर नहीं आते, जिससे उन्हें किसी भी स्तर पर पोंगापंथ, प्रतिगामिता, परंपरावाद, संप्रदायवाद और पोच-सोच का रंचमात्र भी पैरोकार साबित किया जा सके.
कई मामलों में प. नेहरू कुछ ज्यादा ही हो गए थे ‘स्ट्रेट फॉरवर्ड’
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान वे जिन मूल्यों के साथ रहे और प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने जैसे आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी भारत का निर्माण करना चाहा, उससे जुड़े उनके विचारों व कदमों की यह कहकर तो आलोचना की जा सकती है कि कई मामलों में वे कुछ ज्यादा ही ‘स्ट्रेट फॉरवर्ड’ हो गए, लेकिन यह कहकर नहीं की जा सकती कि उन्होंने अपनी आधुनिकता या प्रगतिशीलता में कोई लोचा रह जाने दिया. भले ही नवस्वतंत्र देश में उन्हें इसके लिए कांग्रेस के अंदर व बाहर दोनों के संकीर्णतावादियों से और कई बार दोनों के गठजोड़ से भी लोहा लेना पड़ा था.