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सियासत में बढ़ती अभद्र और अमर्यादित भाषा, घिनौनी और निंदनीय तस्वीर?, वोट की खातिर जुबानी जंग जहरीली

By राजेश बादल | Updated: September 4, 2025 05:06 IST

प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी अपनी मां के लिए बोले गए अपशब्दों पर भावुक होते हैं तो दूसरे मंच से नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की मां और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए कही गई तमाम अपमानजनक टिप्पणियों की याद दिलाई जाती है.

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ठळक मुद्देदोनों उदाहरणों में ही महिलाओं के प्रति आदर और सम्मान नहीं दिखाने का मामला है. मुल्क की राजनीति में महिलाओं को अभी भी प्रतिष्ठा और महत्व की दरकार है.आधी आबादी को सत्ता में भागीदारी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने का संकल्प लिया था.

भयानक सिलसिला है. बेहूदा, अश्लील और घटिया अभिव्यक्तियों ने भारतीय सियासत की एक ऐसी घिनौनी और निंदनीय तस्वीर हमारे सामने पेश की है, जिसकी कोई सभ्य समाज कल्पना भी नहीं करता. हिंदुस्तान के जिन सामाजिक संस्कारों की पहचान अभी तक अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर रही है, वह विसर्जित होती दिखाई दे रही है. विडंबना है कि कुछ दशक पहले तक पक्ष और प्रतिपक्ष के ऐसे स्वस्थ रिश्ते देखे जाते थे, जो सेहतमंद लोकतंत्र की पहचान थे.  लेकिन नई सदी में चुनावों के दरम्यान भाषायी संस्कारों की गाड़ी पटरी से उतर गई है.

चुनाव दर चुनाव राजनेताओं के बीच वोट की खातिर जुबानी जंग जहरीली होती जा रही है. पर अब तो पानी सिर से ऊपर निकल चुका है. अब चुनाव हों या नहीं, बारहों महीने हमारे नियंता ऐसी वाणी बोल रहे हैं, जिस पर शर्म आती है. मतदाता अपने आप को इन राजनेताओं से पराजित और ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है. उसका अवसाद अब आक्रोश में बदलने लगा है.

ताजा प्रसंग महिलाओं के सम्मान से जुड़ा हुआ है. एक मंच से प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी अपनी मां के लिए बोले गए अपशब्दों पर भावुक होते हैं तो दूसरे मंच से नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की मां और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए कही गई तमाम अपमानजनक टिप्पणियों की याद दिलाई जाती है.

दोनों उदाहरणों में ही महिलाओं के प्रति आदर और सम्मान नहीं दिखाने का मामला है. इसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है. पक्ष और प्रतिपक्ष को आधी आबादी के मामलों में गंभीर होना सीखना पड़ेगा. वैसे भी मुल्क की राजनीति में महिलाओं को अभी भी प्रतिष्ठा और महत्व की दरकार है.

संविधान सभा ने आधी आबादी को सत्ता में भागीदारी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने का संकल्प लिया था, मगर यह अफसोसनाक है कि पचहत्तर साल बाद भी उनके लिए सियासत के दरवाजे आसानी से नहीं खुलते. उन्हें आधा प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. प्रतिनिधित्व की बात तो दूर, उन्हें गाली-गलौज और अश्लील कटाक्षों से दो-चार होना पड़ता है.

कई प्रदेशों के उदाहरण हमारे सामने हैं कि महिलाओं की ओर से जब प्रतिरोध किया जाता है तो उन्हें हतोत्साहित किया जाता है.  वे विधानसभा और लोकसभा में समुचित नुमाइंदगी का प्रयास भी करती हैं तो कोई पार्टी उन्हें संरक्षण नहीं देती. इसका क्या अर्थ लगाया जाए? या तो भारतीय पुरुष महिलाओं से खौफ खाते हैं अथवा उनकी परंपरावादी सोच आड़े आती है.

इतिहास गवाह है कि आजादी के आंदोलन में सभी राज्यों में महिलाओं ने कंधे से कंधा मिलाकर पुरुषों का साथ दिया था. इसी का असर था कि वे मुख्यमंत्री और राज्यपाल पद तक तो पहुंचीं, लेकिन प्रधानमंत्री जैसे शिखर पद पर इंदिरा गांधी ही पहुंच सकीं. उन पर भी कितना कीचड़ उछाला गया, हम सबने देखा है.

सार्वजनिक जिंदगी में सक्रिय औरतों के झूठे-सच्चे प्रेम और यौन प्रसंग भी समाज को लुभाते रहे हैं. पश्चिम की तर्ज पर हम भी अपनी महिला नेत्रियों की निजी जिंदगी में झांकने में आनंद अनुभव करने लगे हैं. अतीत के कई उदाहरण हैं.  ओडिशा की मुख्यमंत्री रहीं नंदिनी सत्पथी से लेकर उमा भारती और इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक - सभी ने इस तरह की अश्लील फब्तियों का सामना किया है.

मगर असल बात तो सार्वजनिक जिंदगी में महिलाओं को लेकर सम्मानजनक बरताव की है. स्थानीय स्तर से लेकर शिखर तक हमारे राजनीतिक प्रतिनिधि अपने आचरण और शब्दों पर संयम नहीं रखते. वे दैनिक जीवन में अपशब्दों का बेहूदा इस्तेमाल करते हैं. इसी पन्ने पर मैंने पहले भी राजनीतिक शख्सियतों के बीच जहरीली भाषा पर चिंता प्रकट की है.

अब यह दृश्य आम है कि राजनीतिक कार्यकर्ता अपने विरोधियों को काटने दौड़ते हैं, गाली-गलौज करते हैं और सामंतों जैसा सुलूक करते हैं. हाल ही में संपन्न एक विधानसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के बीच वाकयुद्ध ने तो हद पार कर दी थी. मुख्यमंत्री ने विपक्ष की तुलना सांप, बंदर, बिच्छू और मेंढक से कर दी थी.

उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री की बाढ़ से बचने के लिए प्रतिपक्ष के मेंढक, बंदर और सांप पेड़ पर चढ़ गए हैं.  उन्होंने चुने गए जनप्रतिनिधियों की तुलना सांप बिच्छू से कर डाली. वे भूल गए कि हिंदी में बाढ़ नकारात्मक शब्द माना जाता है.  उसका असर विनाशकारी होता है. प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की तुलना बाढ़ से करना उनके ज्ञान का नमूना है.

एक मर्तबा उन्होंने यहां तक कह दिया कि वे पूर्व मुख्यमंत्री को गड्ढा खोदकर गाड़ देंगे. पूर्व मुख्यमंत्री भी इसके बाद पीछे कैसे रहते. उन्होंने तो एक सभा में अधिकारियों और कर्मचारियों को धमकाते हुए कहा, ‘ऐ पिट्‌ठू कलेक्टर सुन ले! हमारे भी दिन आएंगे. तब क्या होगा.’ इसी कड़ी में एक विधायक ने तो अपनी ही पार्टी के संसद सदस्य को सभा में राक्षस बताया.

उन्होंने कहा कि सांसद राक्षस हैं और उन्हें वे अपने क्षेत्र में घुसने नहीं देंगे, क्योंकि वे स्वयं ऐसे राक्षसों के विनाश के लिए राजनीति में आए हैं. सांसद महाशय ने भी उसी शैली में उत्तर दिया. उन्होंने विधायक की तुलना कुत्ते से कर दी. उन्होंने कहा कि ये तो बेमतलब भौंकते रहते हैं. ध्यान देने की बात यह है कि अगर गांव का एक औसत राजनीतिक कार्यकर्ता अमर्यादित और अश्लील भाषा बोले तो एक बार उसे माफ किया जा सकता है, लेकिन जब इस तरह की विषाक्त बोली मंत्री, विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री तक बोलने लगें तो निराशा स्वाभाविक है.

हमारे शिक्षा तंत्र पर भी यह प्रश्नचिह्न खड़ा करती है. यह तंत्र ऐसी फसल उगा रहा है, जिसमें योग्य और प्रतिभासंपन्न नौजवान देश के नेतृत्व में दिलचस्पी नहीं लेते. वे अच्छे डॉक्टर, वकील, इंजीनियर तो बन जाते हैं, लेकिन अच्छे राजनेता नहीं बनते. बौद्धिक वर्ग के हाशिए पर जाने और धन बल तथा बाहुबल के सियासत में हावी होने का यह दुष्परिणाम है. यह स्थिति निश्चित रूप से सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों पर सवाल खड़े करती है. हम कैसे लोकतंत्र को आकार दे रहे हैं? 

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