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मातृभाषा, बहुभाषिकता से होता है मानव विकास

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: February 21, 2025 06:56 IST

बावजूद इसके कि विभिन्न भाषाएं अलग-अलग लिपियों का उपयोग करती हैं,

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भाषायी और सांस्कृतिक विविधता के अंतरराष्ट्रीय उत्सव के रूप में इस बार का मातृभाषा-दिवस यूनेस्को के आयोजन का रजत जयंती वर्ष है. इसके पीछे टिकाऊ समाज के निर्माण के लिए विभिन्न भाषाओं के संरक्षण, सहनशीलता और पारस्परिक आदर का संकल्प लिया गया है. अपनी और दूसरों की भाषा को समझना अपनी और दूसरों की संस्कृति को जानने-समझने का मुख्य माध्यम है. भाषा न रहे तो हम अपनी संस्कृति को अगली पीढ़ी तक ठीक से पहुंचाने में चूक जाएंगे.

ऐसे में आज विश्व में प्रचलित विभिन्न भाषाओं को सुरक्षित और संवर्धित करना हमारा विशेष दायित्व है. आशा की जाती है कि मातृभाषाओं का समादर समावेशिकता को बढ़ाएगा. एक विरल नैसर्गिक शक्ति के रूप में भाषा हमें न केवल ज्ञान-सृजन का अवसर देती है बल्कि उस ज्ञान को संजोना और दूसरों से साझा करना भी संभव बनाती है. प्रकृति भी इसे समर्थन देती है.

जन्म के समय से ही हर सामान्य बच्चा भाषा अर्जित करने के उपकरण से सज्जित रहता है. नवजात की श्रवण शक्ति अद्भुत होती है. वह स्वाभाविक ध्वनि और शोर में फर्क करने लगता है. छह माह का होने के पहले ही वे कई भाषाएं सुनते और समझते रहते हैं. तीन वर्ष की आयु में उनका तीन-चार भाषाओं से परिचय स्वाभाविक रूप से होता है. दस वर्ष तक यह प्रक्रिया तेजी से चलती है. भारत के बच्चे स्वाभाविक ही बहुभाषिक परिवेश में जन्म लेते हैं व उनकी परवरिश होती है.

आज भारत में लगभग आठ सौ भाषाएं दर्ज हैं. बहुतेरे भारतीय कई भाषाएं बोलते हैं. यह बहुभाषिकता विभिन्न भाषायी समुदायों के बीच न केवल संचार को प्रभावी बनाती है बल्कि साझा पहचान को सबल करती है. बावजूद इसके कि विभिन्न भाषाएं अलग-अलग लिपियों का उपयोग करती हैं, इनमें से कई लिपियां एक ही मूल की हैं, जैसे ब्राह्मी लिपि. यह साझा भाषायी विरासत धार्मिक और सांस्कृतिक ग्रंथों में संस्कृत भाषा और साहित्य के व्यापक उपयोग के साथ-साथ भारतीय भाषायी क्षेत्र में गहन निरंतरता विकसित करने में योगदान करती है.

साझा विषय, पारस्परिक प्रभाव और समान ऐतिहासिक अनुभव इन विविध साहित्यिक परंपराओं को एक साथ बांधते हैं. तमिल-काशी संगमम जैसा मेल-मिलाप संवाद के द्वारा विविधता में एकता की अवधारणा का प्रबल उदाहरण प्रस्तुत करता है.

आज आवश्यकता है कि फौरी राजनीतिक हित-अहित को किनारे रख भारत के भविष्य को सुरक्षित करते हुए संतुलित भाषा नीति का कार्यान्वयन किया जाए. भाषा हमारे अस्तित्व का साधन भी है और साध्य भी.

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