Hindi Virodhi Andolan: इस बात को मानने में कोई दो-राय नहीं होनी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) को मालूम था कि उसे हिंदी की पढ़ाई के विषय में राजनीति के अनेक पैंतरों का सामना करना पड़ेगा. नौबत यहां तक भी आएगी कि उसे अपना अध्यादेश वापस लेने के लिए विवश होना पड़ेगा. फिर भी उसने राज्य में हिंदी को लेकर हो रही राजनीति को हवा दी. यहां तक कि बरसों से दूर जा बैठे ठाकरे बंधुओं को पास आने का अवसर दिया. जिससे उनके समर्थकों की बांछें खिल गईं और वे भविष्य के राजनीतिक समीकरणों को तैयार करने में जुट गए.
मगर यह पूरा खेल राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अमल में लाने की मंशा से त्रिभाषा फार्मूले पर अमल के लिए नहीं खेला गया. इसमें दूरदृष्टि के साथ स्थानीय निकायों के चुनावों की बिसात बिछाई गई. जिनको लेकर इन दिनों भाजपा अत्यधिक गंभीर है. विशेष रूप से मुंबई महानगर पालिका पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से लेकर राज्य के नेताओं तक का ध्यान अभी से केंद्रित है.
वे तय चुनावी रणनीति को अपने ढंग से आगे बढ़ाते हुए महाराष्ट्र की सभी ‘सेनाओं’ को परास्त करना चाहते हैं. वहीं ठाकरे बंधु मुंबई की पैंतीस से चालीस प्रतिशत मराठी आबादी के आधार पर बीस साल पुराना अपना कब्जा बरकरार रखना चाहते हैं. हालांकि भाजपा और कांग्रेस को छोड़ राज्य के अन्य दलों का आकार-प्रकार अब पहले जैसा नहीं रह गया है.
स्थानीय निकायों के चुनावों को लेकर भाजपा में जितनी हलचल है, उतनी अभी किसी दल में नहीं है. मुंबई मनपा चुनाव के प्रभारियों की सूची भी जारी हो गई है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के अनेक दौरे मुंबई में हो चुके हैं. वह अपने संबोधनों में मुंबई के विकास के बारे में बोलने से चूक नहीं रहे हैं. वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से लेकर अन्य नेता भी मुंबई की चिंता में हैं.
हालांकि वे पुणे महानगर पालिका को भी अपने लक्ष्य में जोड़ लेते हैं, लेकिन गठबंधन सरकार चलाने के लिए उन्हें उपमुख्यमंत्री अजित पवार की नाराजगी मोल नहीं लेनी है. महागठबंधन सरकार के घटक दलों में पश्चिम महाराष्ट्र में पवार के साथ शिवसेना शिंदे गुट को अधिक अवसर है. उत्तर महाराष्ट्र और खानदेश में शिवसेना शिंदे गुट के साथ भाजपा की स्थिति अच्छी है.
मराठवाड़ा और विदर्भ में मिश्रित स्थितियां हैं. इसलिए क्षेत्रीय राजनीति से परे पूरा ध्यान महानगर मुंबई पर केंद्रित हो जाता है, जहां गैरमराठीभाषी 60 से 65 प्रतिशत हो चले हैं. यदि वहां हिंदी की बात की जाती है तो कम से कम हिंदीभाषियों के मतों का ध्रुवीकरण हो सकता है, जिनकी संख्या अच्छी खासी है और उसका लाभ बिहार विधानसभा चुनावों में उठाया जा सकता है.
इसीलिए अपने प्रयास में भाजपा ने ठीक लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तरह नया ‘नैरेटिव’ गढ़कर उद्देश्य पाने की कोशिश की है. हिंदी का असर मुंबई और आस-पास है. शेष महाराष्ट्र में हिंदी से कोई बड़ा नुकसान नहीं हो सकता है. लिहाजा मुंबई मनपा चुनाव को प्रमुख लक्ष्य मानकर भाषा के नाम पर पैदा किए विवाद का गणित साफ हो जाता है.
दूसरी ओर ठाकरे बंधुओं की नजदीकियों को देखते हुए कांग्रेस ने स्थानीय निकाय चुनावों में ‘एकला चलो’ का ऐलान कर दिया है. उसने स्पष्ट किया है कि यदि गठबंधन की नौबत आती है तो वह शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट के साथ होगी. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) के साथ सीधा कोई गठबंधन नहीं होगा. इसका छिपा कारण हिंदी-हिंदू ही हैं.
इस स्थिति में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का शरद पवार गुट अकेले गठबंधन को बड़ी ताकत नहीं दे पाएगा. इसलिए मनसे का लाभ कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने तक ठीक है, लेकिन लंबी दूरी के चुनावी समीकरणों में अधिक फायदेमंद साबित नहीं होगा. पिछली मनपा में उसके सात नगरसेवक ही थे.
दूसरी ओर पिछले कई चुनावों में मनसे को ऐन समय पर पाला बदलते या फिर दल निरपेक्ष होते देखा गया है. जिससे चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान उसकी विश्वसनीयता का बना रहना कहीं न कहीं संदेह पैदा करता है. आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो मुंबई की 227 सदस्यीय मनपा के वर्ष 2017 के चुनाव में अविभाजित शिवसेना के 84 नगरसेवक विजयी हुए थे, जबकि भाजपा ने 82, कांग्रेस ने 31, राकांपा ने नौ, मनसे ने सात, समाजवादी पार्टी ने छह स्थानों पर विजय प्राप्त की थी. उस दौरान शिवसेना और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था.
राज्य की सत्ता संभालते हुए शिवसेना ने अगले मनपा चुनावों में अपनी संभावनाओं को बढ़ाने के लिए मनपा के नगरसेवकों की संख्या 227 से बढ़ाकर 236 तक कर दी थी, लेकिन उसके बाद आई एकनाथ शिंदे नीत सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार के फैसले को उलट दिया था. लिहाजा तकनीकी लाभ की संभावना भी क्षीण हो गई.
हिंदी-मराठी के केवल एक मुद्दे से शिवसेना ठाकरे गुट और मनसे दोनों मुंबई मनपा के चुनाव में अधिक लाभ की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं. संगठनात्मक रूप से भी राज्य में दोनों की हर जगह बहुत मजबूत स्थिति नहीं है. दूसरी ओर शिवसेना का शिंदे गुट पूर्व नगरसेवकों पर डोरे डाल रहा है और करीब 45 पूर्व नगरसेवकों के अपने साथ होने का दावा कर रहा है.
यही कारण है कि लगातार बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच ही भाजपा ने हिंदी का सोचा-समझा दांव खेला है. यह जानते हुए कि उसका प्रदेश में व्यापक प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन मुंबई में लाभ अवश्य होगा. पार्टी ने आरंभ से ही प्रदेशाध्यक्ष के चुनाव से लेकर निचले स्तर पर संगठन को स्थापित कर दिया है.
जो स्थान, परिस्थिति और परिवेश को लेकर चुनावी तैयारियों में जुट चुका है. वहीं, भाजपा के नए शिगूफों से राजनीतिक दल भटकने पर मजबूर हो रहे हैं. वे अपने आधार को मजबूत बनाने की बजाय दूसरे पाले में कदम रखने में अपना लाभ मान कर चल रहे हैं. अब सभी दलों को समझना होगा कि देश और समाज में समझ का स्तर काफी बढ़ चुका है.
अब राजनीतिक दलों के लक्ष्यों को समझने में देर नहीं लगती है. यदि कोई दल आम जन की नासमझी का लाभ उठाने की कोशिश करता है तो उसे ही नुकसान उठाना पड़ता है. पिछले साल हुए दो चुनावों में यह स्पष्ट रूप से दिख चुका है. आने वाले चुनावों में यह और भी खुलकर सामने आएगा. तिकड़मों से दूर कहीं हार-जीत का फैसला खुद-ब-खुद तैयार हो जाएगा.