भारत में बार-बार होने वाली भयावह त्रासदियां, जो कीमती जानों को लील रही हैं, खतरे की हद तक ‘न्यू नॉर्मल’ बनती जा रही हैं। सैकड़ों लोगों की टाली जा सकने वाली और असामयिक मौतों की श्रृंखला में हाथरस भगदड़ सिर्फ एक और घटना है। कोई भी शपथपूर्वक यह नहीं कह सकता कि निकट भविष्य में देश के किसी भी हिस्से में, किसी भी पार्टी की सरकार के अधीन, ऐसी भयावह घटनाएं दोबारा नहीं होंगी।
आधुनिक युग में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सहित सभी तकनीक उपलब्ध होने के बावजूद लोगों को ऐसी दुर्घटनाओं में जान क्यों गंवानी पड़ती है? यह वास्तव में मेरी समझ से परे है। हाथरस जैसी घटनाओं से समाज और उसके नेताओं को स्तब्ध होना चाहिए, लेकिन हमेशा के लिए नहीं। नेताओं को ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए उनसे सबक लेना चाहिए। कोई भी तर्क साल-दर-साल ऐसी घातक घटनाओं की पुनरावृत्ति का समर्थन नहीं कर सकता। क्या यह शासन तंत्र की सरासर विफलता नहीं है?
ओडिशा और पश्चिम बंगाल में रेल दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें सोते-सोते ही लोग मौत की नींद सो गए; गुजरात के मोरबी में सस्पेंशन ब्रिज गिरने से 141 लोगों की मौत हुई; तमिलनाडु में जहरीली शराब ने 60 से अधिक लोगों की जान ले ली। मध्य प्रदेश के हरदा में एक अवैध पटाखा फैक्टरी में 13 दिहाड़ी मजदूरों की मौत हो गई, जबकि समय-समय पर सरकारों से उनके मालिकों की शिकायतें की जाती रही हैं। सड़क दुर्घटनाओं में तो सालों से रोजाना होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
सूरत में एक निजी कोचिंग क्लास में आग लगने से 22 छात्र जलकर मर गए; इंदौर में श्रद्धालुओं के बोझ से एक कुआं ढहने से 36 लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर महिलाएं थीं; महाराष्ट्र में 2005 में एक मंदिर में हुई त्रासदी में 340 लोगों की मौत हुई थी और मध्य प्रदेश के दतिया में करीब 11 साल पहले हाथरस जैसी भगदड़ में 115 लोग मारे गए थे। ऐसी आपदाओं की सूची पर नजर डालने से पता चलता है कि वास्तव में अमृत काल में कुछ भी तो नहीं बदला है।वर्ष 1954 में प्रयाग कुंभ में मची भगदड़ में 800 से ज्यादा लोग मारे गए थे। हां, वह तो नेहरू युग था, लेकिन हाथरस का नेहरू से शायद कोई लेना-देना नहीं है!
जहां तक शराब त्रासदी की बात है, जो कि पूरी तरह से रोकी जा सकने वाली घटना थी, मुझे याद है कि जब मैं महाविद्यालय में पढ़ता था तो 1976 में इंदौर में अवैध शराब पीने से बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हुई थीं। ठीक उसी तरह जैसे तमिलनाडु में सिर्फ 48 साल बाद लोग मारे गए। यानी शराब तस्करी की गतिविधि पुलिस और प्रशासन की नाक के नीचे हर जगह बेरोकटोक जारी है।
भले ही (अकाल, युद्ध, बीमारी आदि के बारे में) माल्थस का सिद्धांत सही हो कि मनुष्य अगर स्वयं जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं कर सकता तो प्रकृति करेगी (उन्होंने खाद्यान्न की कमी और मानव जनसंख्या में तेजी से वृद्धि की बात की), लेकिन यह सरकारों को अपना प्रशासन मजबूत करने, भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने और धर्म के ठेकेदारों में इस तरह की भगदड़ के खिलाफ डर पैदा करने की उनकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं करता है।
मध्य प्रदेश में, एक अपेक्षाकृत नए बाबा प्रदीप मिश्रा, हर साल शिवरात्रि पर रुद्राक्ष वितरण का आयोजन करते हैं और तेलंगाना जैसे दूर-दराज के क्षेत्रों से भी भक्तों को भोपाल के पास खींच लाते हैं। वे भी हाथरस जैसी भीड़ जुटाते हैं, जहां त्रासदी होने का खतरा बना रहता है।लेकिन उनके कार्यक्रम बदस्तूर जारी है, हालांकि अब सरकार की ओर से कुछ नियंत्रण किया गया है।
लोगों की जान बचाना जरूरी है। उन्हें चींटियों की तरह मरने नहीं दिया जा सकता- जिस तरह से उत्तर प्रदेश के एक गांव में उनका ‘हश्र’ हुआ और पुलिस सिर्फ मूकदर्शक बनकर रह गई।
‘भगवान’ भोले बाबा का नाम पूरे देश में नहीं जाना जाता था, लेकिन जाहिर तौर पर उनके लाखों अनुयायी थे, जिनमें से कई लोग उनका ‘आशीर्वाद’ ठीक से नहीं ले पाए और मरने वालों की संख्या बढ़कर 121 हो गई, जिनमें से कई की मौके पर या अस्पताल में मौत हो गई।
हाथरस में स्थानीय प्रशासन ने भीड़भाड़ को भगदड़ का आधिकारिक कारण बताया, लेकिन जब इतने सारे लोग - मुख्य रूप से अशिक्षित - बाबाओं के प्रवचन सुनने के लिए एक छोटी सी जगह पर इकट्ठा होते हैं, तब खुफिया विभाग की विफलता, सम्मेलन के लिए दी गई अनुमति और उसके नियमन, पुलिस बल की समुचित तैनाती और कई अन्य संबंधित व्यवस्थाओं के बारे में कई सवाल अब भी अनुत्तरित हैं।
मैंने 50 के दशक में कुंभ मेले में हुई 800 से ज्यादा मौतों का जिक्र इसलिए किया ताकि यह बात रेखांकित हो सकें कि भारत में दशकों से कुछ भी नहीं बदला है। उस समय सीसीटीवी कैमरे प्रचलन में नहीं थे। पुलिस व्यवस्था, भीड़ प्रबंधन तकनीक, आपदा बलों की तैनाती और चिकित्सा देखभाल भी आज की तरह नहीं थी फिर भी बेवजह मौतों का सिलसिला दर्दनाक रूप से आज भी जारी है।
सरकारें तुरंत अनुग्रह राशि का ऐलान करती हैं और दुनिया में सबकुछ पूर्ववत चलने लगता है। क्या यह बहुत ही निराशाजनक व दुःखद नहीं लगता?