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ब्लॉग: समाज में बढ़ता पाखंड और आदर्शवाद का दरकता मुखौटा

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: September 11, 2024 09:36 IST

पाखंडी का शाब्दिक अर्थ होता है होना कुछ, और दिखाना कुछ. चुभता भले ही हो यह शब्द, लेकिन क्या हम ऐसा ही समाज नहीं बनाते जा रहे हैं? ‘एनिमल’ जैसी फिल्मों का बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड तोड़ना क्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि ‘नायक’ की हमारी परिभाषा बदल रही है? विडंबना यह है कि मुखौटा हमने अभी भी आदर्शवादी नायक का ही लगा रखा है.

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ठळक मुद्देएक जमाना था जब अपराधियों को लोग सचमुच ही नफरत की नजर से देखतेसमाज में धनवानों का नहीं, चरित्रवानों का सम्मान किया जाता थानुकसान सहकर भी लोग अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते थे

हेमधर शर्मा: यह बेहद चौंकाने वाली खबर है कि पंजाब की जेलों में कैदी अपना खौफ बनाए रखने के लिए बदन पर एके-47 और धारा 302, 307 जैसे टैटू गुदवा रहे हैं. इसके जरिये वे खुलेआम प्रदर्शित करते हैं कि हत्या या हत्या का प्रयास जैसे जघन्य अपराध उन्होंने किए हैं. जेलें तो अपराधियों के सुधार के मकसद से बनाई गई थीं, अपराध को अगर वे स्टेटस सिंबल बना रहे हैं तो यह किस भविष्य का संकेत है?

लेकिन खबर शायद इतनी चौंकाने वाली भी नहीं है. हम खुले तौर पर स्वीकार करें या नहीं, लेकिन जानते हैं कि अपराध सचमुच ही स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है. अपराधियों के साथ घूमना या उनसे मेलजोल रखना अब लोग शर्म नहीं, शान की बात समझने लगे हैं. आखिर बाहुबलियों के चुनाव जीतने की और किस तरह से व्याख्या की जा सकती है? सार्वजनिक हितों पर अब निजी हित इतने हावी हो गए हैं कि जिसे हम देश हित में हानिकारक मानते हैं, निजी हित में उसे तरजीह देते हैं. वैसे रॉबिनहुड की कहानी हमें पुराने जमाने से ही आकर्षित करती रही है, जो अमीरों की संपत्ति लूटकर गरीबों में बांटता था. बाहुबलियों को चुनते समय भी क्या हम उनमें उसी रॉबिनहुड की छवि देखते हैं?

पाखंडी का शाब्दिक अर्थ होता है होना कुछ, और दिखाना कुछ. चुभता भले ही हो यह शब्द, लेकिन क्या हम ऐसा ही समाज नहीं बनाते जा रहे हैं? ‘एनिमल’ जैसी फिल्मों का बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड तोड़ना क्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि ‘नायक’ की हमारी परिभाषा बदल रही है? विडंबना यह है कि मुखौटा हमने अभी भी आदर्शवादी नायक का ही लगा रखा है. सच्चाई को अभी भी एक गुण ही समझते हैं लेकिन सच बोल कर अपना नुकसान कर लेने वालों को बेवकूफ मानते हैं; जानते हैं कि अपराधी बुरे होते हैं लेकिन उनसे अपना काम निकलता हो तो इसे चतुराई का नाम देते हैं. सिद्धांतों पर अब स्वार्थपरता हावी है. शायद यही कारण है कि प्राय: सारे राजनीतिक दल चुनावों में अपराधियों को टिकट देते हैं क्योंकि जानते हैं कि उनका जीतना पक्का है.  तो क्या हम मुखौटों के समाज में जी रहे हैं? शायद यही कारण है कि राजनीति में गद्दारी को हृदय परिवर्तन कहते हैं, धूर्तता को चालाकी का नाम दिया जाता है और चाहे जैसे भी अपना उल्लू सीधा करने वाले को सफल दुनियादार माना जाता है. मजे की बात है कि इस पाखंड को हम ‘पॉलिश’ का सुसंस्कृत नाम भी दे देते हैं!

एक जमाना था जब अपराधियों को लोग सचमुच ही नफरत की नजर से देखते थे; समाज में धनवानों का नहीं, चरित्रवानों का सम्मान किया जाता था और नुकसान सहकर भी लोग अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते थे. धीरे-धीरे हम सुविधाभोगी बनते गए और पुराने आदर्शों को मुखौटा बना, उसे पॉलिश कर-करके चमकाते रहे. लेकिन अब खोखलापन शायद इतना बढ़ चुका है कि मुखौटा भी दरकने लगा है, उसे टिकाए रखने के लिए भीतर से मामूली मजबूती भी नहीं मिल पा रही!

अपराधों और बुराइयों के महिमामंडन का अंजाम देखने के बाद, क्या हम एक बार फिर समाज को भीतर से मजबूत बनाने की लम्बी व श्रमसाध्य यात्रा पर निकलने का हौसला दिखाएंगे?

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