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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भारतीय किसानों की चुनौतियों को सुलझाना जरूरी

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: January 11, 2021 13:56 IST

आलू का चिप्स, भुनी मूंगफली, मक्का (पॉपकार्न) और चने या फिर लाई के पैकेट पूरे देश में गली-गली जिस कीमत पर बिकते हैं उनको देख कर यही लगता है कि किसान आज की बाजार की व्यवस्था में सिर्फ और सिर्फ ठगा जाता है.

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भारत बहुत समय से गांवों की धरती के रूप में पहचाना जाता रहा है. भारत के परंपरागत समाज के मौलिक प्रतिनिधि के रूप में गांव को लिया गया. सन 1947 में 85 प्रतिशत भारतवासी गांवों में रहते थे. खेतीबाड़ी ही आम जन की आजीविका का मुख्य साधन था. तब भारत की राष्ट्रीय आय में 55 प्रतिशत हिस्सा खेती का था.

राष्ट्र के निर्माण में किसान मुख्य था. असली भारत का प्रतिनिधि था गांव. आर्थिक विकास में सत्तर के दशक की हरित क्रांति के आधार पर भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ था. सात दशक बाद गांव की यह छवि बदल चुकी है. अब भारत तेजी से आगे बढ़ते शहरों और मध्यवर्ग की छवि वाला हो रहा है.

गांव या कृषि क्षेत्न एक बेवजह के भार जैसा, पिछड़ेपन, अशिक्षा और गरीबी वाला माना जा रहा है. कर्ज के चलते किसान आत्महत्याएं भी बड़ी संख्या में हुईं. आर्थिक शक्ति और नगरीय अर्थव्यवस्था में तकनीकी ढंग से प्रशिक्षित गतिशील मध्य वर्ग ही प्रमुख है. वे बाजार की जान हैं.

गांव और कृषि की अर्थव्यवस्था अब चर्चा से बाहर हाशिए पर जा चुकी है. हालांकि अब भी लगभग 70 फीसदी भारतीय ग्रामीण हैं और गांव भी कई लाख हैं. श्रम और मजदूरी की मुश्किलें अभी भी हैं. भूमिहीन भी हैं. सरकार का नवउदारवादी पूंजीवादी रु झान पूंजी के पक्ष में ही कार्य करता है.

विशिष्ट आर्थिक क्षेत्न (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) का विचार इसका स्पष्ट प्रमाण है. भूमि सुधार की पहल ढीली पड़ चुकी है. बाजार उन्मुख खेती की अनिश्चितताओं ने खेती को नया रंग दिया है. नब्बे के दशक में अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के साथ आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया गया उसमें हमारी वरीयताएं बदलती गईं.

गांव में खेती करने वाला किसान और किनारे खिसक गया. नई अर्थ नीति के तहत सरकार का हाथ पीछे खिंचता गया और बाजार हावी होता गया. छोटे किसान जो ज्यादा संख्या में हैं, नगदी फसल के लिए विभिन्न स्नेतों से उधार लेते हैं. कृषि उत्पादन का चक्र ऐसा कि सब फसल एक साथ बाजार पहुंचती हैं और छोटे किसान को बड़े सौदागरों से अच्छा सौदा करना मुश्किल होता है.

देश के कई भागों में किसानों की आत्महत्या इसी विसंगति की ओर संकेत करती है. स्थानीय और वैश्विक अर्थतंत्न के रिश्ते, सरकार की नीति, कृषि की उपेक्षा और सामाजिक संरचना ने कृषि के क्षेत्न में त्नासदी पैदा की. किसान निराश है और अर्थतंत्न में कृषि अलग-थलग है. किसानों के हित अब नीतियों के केंद्र में नहीं रहे.

गांव और शहर के बीच की बढ़ती खाई ने शहर को ही विकास की नीति का केंद्र बना दिया. किसानों की आवाज अनसुनी रह गई. कृषि राज्य सरकार का विषय है जबकि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की नीतियां केंद्र के जिम्मे हैं. शहरी कॉर्पोरेट अर्थव्यवस्था जो मध्य वर्ग के उपभोक्ताओं पर टिकी थी, प्रबल होती गई और गरीब किसान राष्ट्रीय नीतियों में किनारे पड़ता गया.

नियति का खेल यह है कि कुल कामगारों में आधे से कुछ ज्यादा को अवसर देने पर भी राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्न का योगदान महज छठा हिस्सा रह गया है. कृषि के क्षेत्न में ठहराव के चलते लोग शहर की ओर पलायन करने लगे. जीवन के देश काल में गांव की जगह अनाकर्षक होती गई.

गरीब और धनी अपने भाग्य आजमाने गांव से बाहर जाने लगे. ऐसे थोड़े ही किसान हैं जो उद्यमिता के आत्मविश्वास के साथ खेती को पुनर्जीवित करने में लगे हैं. किसानों की हालत पतली है और उनके श्रम का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है - यह ऐसा तथ्य है जो सबको मालूम है.

उनसे जिस दाम पर वस्तुएं खरीदी जाती हैं और जिस कीमत पर बाजार में उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराई जाती हैं उसमें जमीन आसमान का फर्क है. आलू का चिप्स, भुनी मूंगफली, मक्का (पॉपकार्न) और चने या फिर लाई के पैकेट पूरे देश में गली-गली जिस कीमत पर बिकते हैं उनको देख कर यही लगता है कि किसान आज की बाजार की व्यवस्था में सिर्फ और सिर्फ ठगा जाता है.

खेती करना चौबीसों घंटे का हिम्मत का काम होता है जिसके लिए साधन जुटाना और समय के अनुसार जरूरी श्रम लगाना अच्छी खासी योजना और तैयारी की मांग करता है. अब खेती के लिए जरूरी उपकरणों के लिए तकनीकी जानकारी भी जरूरी होती जा रही है.

फसलें भी कई तरह की होती हैं और मौसम तथा जमीन की गुणवत्ता के हिसाब से दलहन, तिलहन, रबी, खरीफ, गन्ना, फूल, सब्जी, फल आदि की खेती के लिए तैयारी कब और कैसे की जाए, बिजली और पानी की व्यवस्था कैसे हो यह सब अब परिपक्व ‘प्रोफेशनल’ जानकारी की अपेक्षा करता है.

अब जमींदार के बदले लाभ पाने वाले मिल और फैक्टरी के मालिक हैं, बिचौलिए हैं और किसान को खेती में उसकी लागत भी नहीं निकल पाती है. कहने का मतलब यह कि खेती को नए ढंग से व्यवस्थित करने की जरूरत है. इन सवालों को लेकर विचार होता रहा है. स्वामीनाथन समिति ने अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं.

सरकार ने कृषि सुधार के लिए तीन कानून लागू करने की मंशा बनाई जिसे लेकर किसान असंतुष्ट हैं और महीने भर से ज्यादा हुए दिल्ली को घेर कर किसान आंदोलन रहे हैं. किसानों का भारत आज जिन मुश्किलों से गुजर रहा है उनका राजनीतिक हित से परे हट कर मूल्यांकन किया जाना जरूरी है. खेती-किसानी विशाल भारत की जीवनी शक्ति की धुरी है और उसकी उपेक्षा किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती है.

टॅग्स :किसान आंदोलनभारतइकॉनोमीकिसान आत्महत्या
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