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अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: संघीय भावना की रक्षा किए जाने की जरूरत

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: August 2, 2024 12:57 IST

संक्षेप में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को अधिक जिम्मेदारी से काम करना चाहिए, उदार होना चाहिए और दरियादिली दिखानी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ऐसा न होना दोनों तरफ से नुकसानदेह है।

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भारतीय राजनीति की संघीय प्रकृति, जो हमारे संविधान में निहित है, को संविधान निर्माताओं ने प्रशंसनीय दूरदर्शिता और राजनीतिक दृष्टि से आकार दिया था। उन्होंने उन जटिल समस्याओं का बेहतर पूर्वानुमान लगाया था जो तब सामने आएंगी जब अलग-अलग राजनीतिक दल दिल्ली और राज्यों की राजधानियों को चलाएंगे। 75 वर्षों के बाद आज हम देख रहे हैं कि विपक्षी दलों, मुख्यतः गैर-भाजपा शासित राज्यों के साथ केंद्र सरकार द्वारा किए जाने वाले कथित भेदभाव पर संसद में बार-बार चर्चा होती है, आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा फिर से यह स्पष्ट किया जाना कि उनके बजट में किसी भी राज्य को धन देने से मना नहीं किया गया है, इसका स्पष्ट उदाहरण है। ताजा विवाद एनडीए के नए राजनीतिक सहयोगियों बिहार और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों को खुले हाथों बजटीय सहायता दिए जाने के बाद शुरू हुआ है। इनके बिना भाजपा लगातार तीसरी बार सरकार नहीं बना पाती। वित्त मंत्री ने न केवल संसद में विपक्ष के सभी आरोपों का खंडन किया बल्कि यह भी कहा कि अतीत में यूपीए के वित्त मंत्रियों ने भी बजट भाषणों में कई राज्यों का नाम नहीं लिया था।

जानकारी के लिए बता दें कि संविधान के लगभग 10 अनुच्छेद केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों के बारे में बताते हैं, जिनकी शुरुआत अनुच्छेद 245 से होती है लेकिन वे मूलतः विधायी दायित्वों के बारे में बात करते हैं। केंद्र सरकार और राज्यों के बीच तनावपूर्ण संबंध निश्चित रूप से मोदी सरकार की देन नहीं है। न्यायमूर्ति आरएस सरकारिया आयोग की नियुक्ति 1983 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने इन मुद्दों को सुलझाने हेतु की थी। उसके बाद 2007 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एम. पुंछी के नेतृत्व में एक और आयोग बनाया गया।

उस समय भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। पुंछी पैनल ने सरकारिया आयोग की सिफारिशों पर फिर से विचार किया। इसने ऐसी कमियों को पाया जिनके लिए केंद्र-राज्य संबंधों को मजबूत करने और प्रशासनिक व विधायी सामंजस्य में सुधार की आवश्यकता थी। भारत को स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद, अधिकांश राज्य सरकारों पर कांग्रेस पार्टी का शासन था और राज्यों और केंद्र के बीच कोई तनाव नहीं था क्योंकि प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने ऊंचे कद और करिश्माई नेतृत्व के साथ शासन कर रहे थे।

हालांकि, एक दशक के भीतर ही केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार चुनी गई, जिसने भारत में साम्यवाद को आगे बढ़ाया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के उदय ने भारत के राजनीतिक ताने-बाने को बदल दिया। कांग्रेस ने 1977 में दिल्ली पर अपना राजनीतिक नियंत्रण खो दिया, हालांकि इंदिरा गांधी के नेतृत्व में ही इसने 1980 में फिर से सत्ता हासिल कर ली। इस बीच, कई राज्यों पर गैर-कांग्रेसी गठबंधनों ने कब्जा कर लिया और इस तरह संघीय ढांचे में दरारें पड़ने लगीं, जिससे राजनीतिक तनाव पैदा होने लगा। एक अजीबोगरीब  स्थिति तब उत्पन्न हुई जब भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यूपीए शासन के विरोध में मध्यप्रदेश के लिए न्याय की मांग करते हुए भोपाल में धरने पर बैठ गए।

हालांकि मोदी सरकार पर विपक्ष द्वारा वर्तमान में किए जा रहे हमले बजट में सौतेले व्यवहार के लिए हैं, लेकिन अक्सर ही दिल्ली (आप), बंगाल (तृणमूल), कर्नाटक (कांग्रेस) या केरल (सीपीएम/एलडीएफ) जैसी राज्य सरकारें केंद्र पर करों का हिस्सा जारी न करके या उन्हें ‘ठीक’ करने के लिए जांच एजेंसियों को भेजकर उनके राज्यों में समस्याएं पैदा करने का आरोप लगाती रही हैं। आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन को भ्रष्टाचार के ‘आरोपों’ में जेल भेजा गया, लेकिन कहीं अधिक गंभीर मामलों में शामिल भाजपा नेताओं को छुआ तक नहीं गया। इससे जनता में नाराजगी है।

हमारे संघीय ढांचे को कमजोर करने वाला दूसरा कारक गैर-भाजपा सरकारों में राज्यपालों की भूमिका से संबंधित है, जिस पर सरकारिया आयोग ने कई दशक पहले अनुशंसाएं कर दी थीं। राज्यपालों या उपराज्यपालों से पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं करने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जब संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने के बजाय, मौजूदा राज्यपालों ने अपने आकाओं के राजनीतिक रुझान का अनुसरण किया है।

वित्त मंत्री ने अपने जवाब में सही कहा है कि विपक्षी नेता ऐसे मुद्दे उठाकर नकारात्मकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं और इससे विदेशों से आने वाले निवेश पर भी विपरीत असर पड़ेगा। उन्होंने राहुल गांधी पर निशाना साधा जिन्होंने बजट के बहाने सरकर पर कई आरोप लगाए थे। करदाताओं की कीमत पर यह राजनीतिक झगड़े जारी रहेंगे, लेकिन संघीय ढांचे और संविधान की भावना को हर कीमत पर हमें बचाना होगा। इसकी जिम्मेदारी सीधे संघीय सरकार के संरक्षक की है। संक्षेप में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को अधिक जिम्मेदारी से काम करना चाहिए, उदार होना चाहिए और दरियादिली दिखानी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ऐसा न होना दोनों तरफ से नुकसानदेह है।

आज भाजपा कई राज्यों में भारी बहुमत में है, जिसमें पहली बार ओडिशा भी शामिल है। कल को राजनीतिक परिदृश्य बदल सकता है, जैसा कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में हुआ, जब भाजपा बहुमत हासिल नहीं कर सकी। प्रतिशोध की अंदरूनी राजनीति निश्चित रूप से देश की मदद नहीं करेगी।

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